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________________ उत्तम परिणति को फल कीजै, शुद्ध भाव कन थाल धरीजै। तातें मनवांछित फल पावै, सो संयम वृष जजि शिर नावै।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। आठो द्रव्य अमोनिक जानो, प्रासक भाव सहित हितदानी। पद अनाध्यं तासु फल पावै, सो संयम वृष जजि शिर नावै।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमसंयमधर्मांगाय अनध्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। प्रत्येकाध्याणि (चौपाई) ताल कूप खाई न खूदाय, भूमिकाय तब दया पलाय। पृथ्वीकायकीरक्षा होय, संयम धर्म जजो मद खोय।। ऊँ ह्रीं पृथ्वीकायकजीवरक्षणरूपसंयम धर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1। अनगालो जल बरत नाहिं, नदी तलाब कुडावै नाहिं। जलकारिक जिय रक्षाकरे, संयमवृक्ष जजि शिवतिय वरै।। ऊँ ह्रीं जलकायिकजीवरक्षणरूपसंयम धर्मांगायाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।2। अगनिजलावन काज न करै, नाहिं बुझावै करुणा धरै। अगनिकाय जिय रक्षा होय, संयम धर्म जजौं शुचि होय।। ऊँ ह्रीं अग्निकायकजीवरक्षणरूपसंयम धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।3। पवन काय की रक्षा सार, पंखा आदि काज नहिं धार। ___पवन काय जिय रक्षा होय, संयम धर्म जजौं मद खोय।। ऊँ ह्रीं वायुकायिकजीवरक्षणरूपसंयम धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।4। 622
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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