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________________ (दोहा) श्री जिन चौबिस जन्म की, महिमा उर में धार। पूज करत पातक टलें, बढ़े ज्ञान अधिकार।। ऊँ ह्रीं चतुर्विंशतिजिनेभ्योजन्मकल्याणकप्राप्तेभ्यः महाअध्यं निर्वपामीति स्वाहा।। तपकल्याणक पूजन (गीता) श्री रिषभदेव सु आदि जिन श्री वर्द्धमान जु अंत हैं। वन्दहुं चरण वारिज तिन्हों के जपत तिनको संत हैं।। करके तपस्या साधु व्रत ले मुक्ति के स्वामी भए। तिन तपकल्याणक यजनको हम द्रव्य आठों हो लए।। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभादि वर्धमानजिन तपकल्याणकप्राप्तः अत्र अवतर अवतर संवौषट्। आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभादि वर्धमानजिन तपकल्याणकप्राप्तः अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। स्थापनम् ऊँ ह्रीं श्रीऋषभादि वर्धमानजिन तपकल्याणकप्राप्तः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। सन्निधिकरणम्। (चाली) शुचि गंगाजल भर झारी, रुज जन्म मरण क्षयकारी। तपसी जिन चौवि स गाए, हम पूजत विघ्न नशाए।। ऊँ ह्रीं श्री ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा। शीतल चन्दन घसि लाऊं, भवका आताप शमाऊं। __तपसी जिन चौवि स गाए, हम पूजत विघ्न नशाए।। ऊँ ह्रीं श्री ऋषभादिवर्द्धमानजिनेन्द्रेभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।। 488
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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