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________________ मनः गुप्ति धारी विकल्प प्रहारी, परम शुद्ध उपयोग में नित विहारी। निजानन्द सेवी परम धाम बेवी, जजूं मैं गुरू को धरम ध्यान टेवी।। ऊँ ह्रीं मनोगुप्तिसंपन्नाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1371 वचन गुप्तिधारी महासौख्यकारी, करें धर्म उपदेश संशय निवारी। सुधा सार पीते धरम ध्यान धारी, जजूं मैं गुरू को सदा निर्विकारी।। ॐ ह्रीं वचनगुप्तिधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।138॥ अचल ध्यान धारी खडी मूर्ति प्यारी, खुजावें मृगी अंग अपना सम्हारी। धरी काय गुप्ति निजानन्द धारी, जजूं मैं गुरू को सु समता प्रचारी।। ऊँ ह्रीं कायगुप्तिसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।139॥ परम साम्यभावं धरें जो त्रिकालं, भरम राग रूप द्वेष मद मोह टालं। पिवें ज्ञान रस शांति समता प्रचारी, जजू मैं गुरू को निजानंद धारी।। ऊँ ह्रीं सामायिकावश्यककर्मधारिभ्य आचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।1400 करें वन्दना सिद्ध अरहन्त देवा, मगन तिन गुणों में रहें सार लेवा। उन्हीं सा निजातम जु अपने विचारें, जजू मैं गुरू को धरम ध्यान धारें। ऊँ ह्रीं वन्दनावश्यकनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।141॥ करें संस्तवं सिद्ध अरहंत देवा, करें गान गुण का लहें ज्ञान मेवा। करें निर्मलं भाव को पाप नशें, जजूं मैं गुरू को सु समता प्रकाशे।। ऊँ ह्रीं स्तवनावश्यकसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।142॥ 452
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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