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________________ न है लोभ राक्षस न तृष्णा पिशाची, परम शौच धरें सदा जो अजाची । करें आत्म शोभा स्व संतोष धारी, जजूं मैं गुरू को भवाताप हारी।। ऊँ ह्रीं उत्तमशौचधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा।।131॥ न संयम विराधें करें प्राणीरक्षा, दमैं इन्द्रियों को मिटावें कु-इच्छा। निजानंद राचें खरे संयमी हो, जजूँ मैं गुरू को यमी अर दमी हो।। ऊँ ह्रीं उत्तमद्विविधसंयमपात्राचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।132॥ तपो भूषणं धारते यति विरागी, परमधाम सेवी गुणग्राम त्यागी । करें सेव तिनकी सु इन्द्रादि देवा, जजूं मैं चरण को लहूं ज्ञान मेवा ।। ॐ ह्रीं उत्तमतपोऽतिशयधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।133॥ अभयदान देते परम ज्ञान दाता, सुधर्मोषधी बांटते आत्म त्राता। परम त्याग धर्मी परम तत्व मर्मी, जजूं मैं गुरू को शमूं कर्म गर्मी।। ऊँ ह्रीं उत्तमत्यागधर्मप्रवीणाचार्य परमेष्ठिभ्यः अयं निर्वपामीति स्वाहा।।134॥ न परवस्तु मेरी न सम्बन्ध मेरा, अलख गुण निरंजन शमी आत्म मेरा । यही भाव अनुपम प्रकाशे सुध्यानं, जजूं मैं गुरू को लहूं शुद्ध ज्ञानं ।। ऊँ ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।135।। परम शील धारी निजाराम चारी, न रंभा सु नारी करें मन बिकारी । परम ब्रह्मचर्या चलत एक तानं, जजूं मैं गुरू को सभी पापहानं।। ऊँ ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्ममहनीयाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 136।। 451
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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