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________________ लगे दोष तन मन वचन के फिरन से, कहें गुरु समीपे परम शुद्ध मन से। करें प्रतिक्रमण अर लहें दण्ड सुख से, जजूं मैं गुरू को छूटू सर्व दुःख से।। ऊँ ह्रीं प्रतिक्रमणावश्यकनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।143॥ करें भावना आत्म की ज्ञान ध्यावे, पढ़ें शास्त्र रुचि से सुबोधं बढ़ावे। यही ज्ञान सेवा करम मल छुडावे, जजूं मैं गुरु को अबोध हटावे।। ऊँ ह्रीं स्वाध्यायावश्यककर्मनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।144॥ तजें सब ममत्वं शरीरादि सेती, खड़े आत्म ध्या- छुटे कर्म रेती। लहैं ज्ञान भेदं सु व्युत्सर्ग धारें, जजूं मैं गुरु का स्व-अनुभव विचारें।। ॐ ह्रीं व्युत्सर्गावश्यकनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।145॥ (दोहा) गुण अनन्त धारी गुरू, शिवमग चालनहार। संघ सकल रक्षा करें, यह विघ्न हरतार।। ऊँ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठोद्यापने पूजाहमुख्यषष्ठवलयोन्मुद्रित आचार्य परमेष्ठिभ्यो पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा। सप्तम वलय में उपाध्याय परमेष्ठी के 25 गुणों की पूजा (द्रुतिविलम्बित) प्रथम अंगकथक आचार को, सहस अष्टादश पद धारतो। पढत साधु सु अन्य पढ़ावते, जजू पाठक को अति चावसे।। ऊँ ह्रीं अष्टादशसहस्त्रपदकाचारांगज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठिभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।146॥ 453
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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