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________________ अपावन विनाशीक निज देह लखके, तजें सब ममत्वं सुधा आत्म चखके। करें तप सु व्युत्सर्ग सन्तापहारी, जजूं मैं गुरू को परम पद विहारी।। ऊँ ह्रीं व्युत्सर्गतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।125॥ जु है आर्तरौद्रं कुध्यानं कुज्ञानं, उन्हें नहिं धरें ध्यान धर्म प्रमाणं। करें शुद्ध उपयोग कर्मप्रहारी, जजूं मैं गुरू को स्वअनुभव सम्हारी । ऊँ ह्रीं ध्यानावलम्बननिरताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 126।। लें। करै कोय बाधा वचन दुष्ट बोले, क्षमा ढाल से क्रोध मन में न कुछ धरैं शक्ति अनुपम तदपि शाम्यधारी, जजूं मैं गुरू को स्वधर्म प्रचारी।। ऊँ ह्रीं उत्तमक्षमापरधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।127॥ धरैं मद न तप ज्ञान आदी स्वमन में, नरम चित्त से ध्यान धारें सुवन में। परम मार्दवं धर्म सम्यक् प्रचारी, जजूं मैं गुरू को सुधा ज्ञान धारी।। ॐ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मधुरन्धराचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।128॥ परम निष्कपट चित्त भूमी सम्हारे, लता धर्म वर्धन करें शान्ति धारें । करम अष्ट हन मोक्ष फल को विचारे, जजूं मैं गुरु की श्रुत ज्ञान धारें ।। ऊँ ह्रीं उत्तममार्दवधर्मपरिपुष्टाचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।129॥ न रूप लोभ भय हास्य नहिं चित्त धारें, वचन सत्य आगम प्रमाणे उचारें। परम हितमितं मिष्ट वाणी प्रचारी, जजूं मैं गुरू को भवताप हारी || ॐ ह्रीं उत्तमार्जवधर्मप्रतिष्ठि ताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥130॥ 450
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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