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________________ तिनके पद मनवचन काय शुध, पूजों भव भव ‘टेक' निवार।। एकादश अंग ज्ञान धरे उर, तिनको रहस सकल पहिचान। चौदह पूरब लही रिद्धि तिन, करुणाकरि उपदेश बखान।। आप पढ़ें शिष्यन पढ़वावें, समताभाव रागपद भान। ऐसे गुण को धरें उपाध्या, तिनपद ‘टेक' भजे शिव जान।। पंच महाव्रत समिति पाँच गिन, इन्द्री पाँच करें वश घेर। षट आवश्यक करें नित्य ही, ताकरि पाप हरे वर वीर।। भूमि शयन आदिक गुण सात जु और मिलावो इनके तीर। अष्टाविंशति हो सकल मिल, इन धर साधु करें शिवसीर।। ये ही पंच गुरु परमेष्ठी, ये ही सकल हितु सुखकार। ये ही मंगलदायक जग में, ये ही करें भवोदधि पार।। ये ही पांचों पंचमगतिमय, ये ही पंच मुकति करतार। इनके पद को भव भव सरनों, मागों उर की 'टेक' निवार।। दोहा अरिहंत सिद्ध आचार्य के, पांय उपाध्या पाय। साधु सहित पाँचों चरनं, पूजों “टेक' लगाय।। ऊँ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः पूर्णाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। ।।इति पंचपरमेष्ठि विधान समाप्तम्।। 1358
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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