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________________ शिर सुख डाढ़ी कच लुंचे, बाधा लहे न कोय। एक बार भोजन लघू निरदूषण लें सोय।। तन थिति शिवसुख कारने, आनकाज ना जान। दन्त न धोवें दयानिधी, निजसम सबको मान।। ऐसे बीस अरु आठ, गुणधारी मुनि कोय। तिनके पद वसुद्रव्य तें, पूजों मन शुध होय।। सोरठा तन-विरकत शिवमिन्त, सकल जन्तु रखपाल हैं। निज सुख धारत सन्त, पूजें तें बहु सुख बढ़े।। ॐ ह्रीं अष्टाविंशतिगुणगुणसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। समुच्चय जयमाल (कवित्त छन्द) जन्मत दश दश केवल उपजें, चौदह देव करें थुति लाय। अनंत चतुष्टय प्रातिहार्य वसु, सब मिलि गुण छयालीस सुथाय।। इनको धरे देव सो मोकों, भव भव शरण होहु सुखदाय। सुर नर हरि पूजत भगवत पद, अपनो आतम सफल कराय।। समकित दरश ज्ञान वीरज गुण, सूक्ष्मत्व अवगाहन जान। अगुरुलघु सप्तम गुन जानो, अष्टम अव्याबोध बखान।। ये गुण आठ धरे बिन मूरति, चेतन एक सदा अखदान। ऐसे सिद्ध लोक शिर राजे, तिन पद 'टेक' नमों उर आन।। दशलक्षण शुभधर्म तने हैं, द्वादश भेद कहे तपसार। षट आवशि शुभ गुप्ति तीन लखि, पांच भेद जानों आचार।। ये शुभ छत्तीसों गुण धारें, आचारज सब जिय हितकार। 1357
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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