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________________ अडिल्ल छन्द वृक्ष अशोक सिंहासन भामण्डल चमर, पुहुपवृष्टि दिव्यधुनि, दुन्दुभि छत्र वर। ये वसु प्रातीहार्य, जिनों के होय हैं, इन बिन ये नहिं, और देव के होय हैं।। ॐ ह्रीं वसुप्रातिहार्यविभूषितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।। अनन्तचतुष्टयों का वर्णन (वेसरी छन्द) दर्शन अनन्त अनन्तहि जोवे, जो जो भई होय वा होवे। यातें पद सर्वज्ञ सु होई, ये गुणजिन विन लहे न कोई।। ऊँ ह्रीं अनन्तदर्शनसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा॥1॥ ज्ञान अनन्तानन्त जनावे, तीन लोक त्रयकाल लखावे। पद सर्वज्ञ ताज तें होई, ये गुण जिन विन लहे न कोई।। ऊँ ह्रीं अनन्तज्ञानसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।2।। सुख अनन्त मनोहर होवे, बाधा अनन्तकाल नहिं जोवे। सुख अनन्त बिन देव न होई, ये गुण जिन विन लहे न कोई।। ऊँ ह्रीं अनन्तसुखसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।3। अन्तराय भट जिन जय लीनों, तिनभव दुख हर कारज कीनो। अनन्तवीर्य परकाशन होई, ये गुण जिन विन लहे न कोई।। ऊँ ह्रीं अनन्तवीर्यसहितजिनेभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।।4। दश जन्मत दश केवल उपजे होय हैं, चौदह सुरकृत अनन्त चतुष्टय सोय हैं।। प्रातिहार्य वसु सब मिलि गुण छियालीस जी, इन अतिशय जुत होय सोय जगदीश जी।। ऊँ ह्रीं षट्चत्वारिंशद् गुणसहितजिनेभ्यः महाध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 1326
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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