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________________ धवला पुस्तक 1 43 यतः जिस कारण से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो स्वयं तथा परस्पर में कभी भी रमते नहीं, इसलिये उनको नारत कहते हैं।128।। तिर्यंच का स्वरूप तिरियति कुडिल-भावं सुयिड-सण्णा णिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम।।129।। जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पाई जावे उनको तिर्यंच कहते हैं।।129।। मनुष्य का स्वरूप मण्णति जदो णिच्चं मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हा। मणु-उब्बभवा य सव्वे तम्हा ते माणुसा भणिया।।130।। जिस कारण जो सदा हेय-उपादेय आदि का विचार करते हैं, अथवा जो मन से गुण-दोषादिक का विचार करने में निपुण हैं, अथवा जो मन से उत्कट अर्थात् दूरदर्शन, सूक्ष्म-विचार, चिरकाल धारण आदि रूप उपयोग से युक्त हैं, अथवा जो मनु की सन्तान हैं, इसलिये उन्हें मनुष्य कहते हैं।।130॥ (देवगति के) देव का स्वरूप दिव्वति जदो णिच्चं गुणेहि अट्ठहि य दिव्व-भावेहि। भासंत-दिव्व-काया तम्हा ते वणिया देवा।।131।। क्योंकि वे दिव्यस्वरूप अणिमादि आठ गुणों के द्वारा निरन्तर क्रीड़ा करते हैं और उनका शरीर प्रकाशमान तथा दिव्य है, इसलिये उन्हें देव कहते हैं।।131॥
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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