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________________ धवला उद्धरण 44 सिद्धगति का स्वरूप जाइ-जरा-मरण-भया संजोय-विओय-दुक्ख-सण्णाओ। रोगादिया य जिस्से ण सति सा होई सिद्धिगई।।132।। जिससे जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, आहारादि संज्ञाएँ और रोगादिक नहीं पाये जाते हैं, उसे सिद्धगति कहते हैं।।132।। सम्यग्दृष्टि कहाँ उत्पन्न नहीं होता है ? छसु हेट्टिमासु पुढवीस जोइस-वण-भवण-सव्व-इत्थीसु। णेदुस समुप्पज्जइ समाइट्ठी दु जो जीवो।।133।। सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथिवी के बिना नीचे की छह पृथिवियों में, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवों में और सर्वप्रकार की स्त्रियों में मरकर उत्पन्न नहीं होता है।।133।। इन्द्रियों का आकार जव-णालिया मसूरी चंवद्धइमुत्त-फुल्लु-तुल्लाइं। इंदिय-संठाणाई पस्सं पुण जेय-संठाण।।134।। श्रोत्र-इन्द्रिय का आकार यव की नाली के समान है, चक्षु-चन्द्रिका का मसूर के समान, रसना-इन्द्रिय का आधे चन्द्रमा के समान, घ्राण-इन्द्रिय का कदम्ब के फूल के समान आकार है और स्पर्शन-इन्द्रिय अनेक आकार वाली है।।134।। ___ एकेन्द्रिय जीव का स्वरूप जाणदि पस्सदि भुजदि सेवदि पासिदिएण एक्केण। कुणदि य तस्सामित्तं थावरू एइंदिओ तेण।।135।। क्योंकि स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, भोगता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है, इसलिये
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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