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________________ धवला पुस्तक 9 165 आणद-पाणदवासी तह आरण-अच्चुदा य जे देवा। पस्संति पंचमखिदि छट्टि गेवज्जया जे दु।।11।। आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पों में रहने वाले जो देव हैं वे पंचम पृथिवी तक तथा ग्रैवेयकों में उत्पन्न हुए देव छठी पृथिवी तक देखते हैं।।1।। सव्वं च लोयणालि पस्संति अणुत्तरेस जे देवा। सक्खत्ते य सकम्मे रुवगदमणंतभागो दु।।12।। नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तरों में जो देव हैं वे सब लोकनाली अर्थात् कुछ कम चौदह राजु लम्बी और एक राजु विस्तृत लोकनाली को देखते हैं। स्वक्षेत्र अर्थात् अपने क्षेत्र के प्रदेश समूहों में से एक प्रदेश कम करके अपने-अपने अवधिज्ञानावरणकर्म द्रव्य में एकबार अनन्त अर्थात् ध्रुवहार का भाग देना चाहिये। इस प्रकार समूह समाप्त न हो जावे। ऐसा करने पर जो द्रव्य प्राप्त हो वह विवक्षित अवधि का विषयभूत द्रव्य जानना चाहिये।।12।। कालो चउण्ण बुड्ढी कालो भजियव्वो खेत्तवुड्ढीए। उड्ढीए दव्व-पज्जय भजिदव्वा खेत्त-काला य।।13।। काल की वृद्धि होने पर द्रव्यादि चारों की वृद्धि होती है। क्षेत्र की वृद्धि होने पर कालवृद्धि भजनीय है, अर्थात् वह होती भी है और नहीं भी होती है। द्रव्य और भाव की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल की वृद्धि भजनीय है।।13।। ते या कम्मइसरीरं ते यादव्वं च भासदव्वं च। बोद्धव्वमसंखज्जा दीव-समुद्दा य वास यं।।14।। नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर (देशावधि के मध्य विकल्पों में जहाँ अवधिज्ञान) तैजस शरीर, उसके आगे कार्मण शरीर, उसके आगे तेजोद्रव्य अर्थात् विस्रसोपचय रहित तैजस वर्गणा, उसके आगे भाषा द्रव्य
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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