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________________ धवला उद्धरण 166 अर्थात् विस्रसोपचय रहित भाषा वर्गणा (और उससे आगे मनोवर्गणा को) जानता है, वहाँ क्षेत्र असंख्यात द्वीप-समुद्र और काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है।।14।। अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज दो वि संखज्जा। अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं।।15।। प्रथम काण्डक में जघन्य देशावधिका क्षेत्र अंगल का असंख्यातवां भाग और जघन्य काल आवली का असंख्यातवां भाग है। इसी काण्डक में उत्कृष्ट क्षेत्र और काल क्रमशः अंगुल व आवली के संख्यातवें भाग प्रमाण है। द्वितीय काण्डक में क्षेत्र घनांगुल और काल कुछ कम आवली प्रमाण है। तृतीय काण्डक में क्षेत्र अंगुलपृथक्त्व और काल आवली प्रमाण है।।15।। परमोहि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि समयकालो दु। रूवगद लहइ दव्वं खत्तोवमअगणिजीवेहि।।16।। परमावधि उत्कर्ष से क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोकमात्रों और काल की अपेक्षा असंख्यात लोक मात्र समय रूप काल को जानता है। वही (शलाकाभूत) क्षेत्रोपम अग्निकायिक जीवों से परिच्छिन्न रूपगत द्रव्य को उत्कर्ष से विषय करता है।।16।।। पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणाभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।।17।। वचन के अगोचर ऐसे जीवादिक पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थकर की सातिशय दिव्यध्वनि में प्रतिपाद्य होते हैं तथा प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनन्तवें भाग द्वादशांग श्रुत के विषय होते हैं।।17।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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