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________________ धवला पुस्तक 6 131 अनन्तरवर्ती जघन्य स्थिति विशेष में जो अनुभाग होता है वही अनुभाग उससे ऊपर के समस्त स्थिति विशेषों में भी होता है, उससे भिन्न प्रकार का नहीं।।7।। मिच्छत्तपच्चओ खलु बंधो उवसामयस्स बोद्धव्वो। उवसंते आसाणे तेण परं होदि भयणिज्जो।।8।। उपशम के प्रथमस्थिति के अन्तिम समय तक मिथ्यात्व प्रत्ययक अर्थात् मिथ्यात्व के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध जानना चाहिए। (यद्यपि असंयम, कषाय आदि अन्य भी बंध के कारण विद्यमान है, तथापि उनकी विवक्षा नहीं की गई है, किन्तु प्रधानता से मिथ्यात्व कर्म की ही विवक्षा की गई है।) दर्शनमोह की उपशान्त अवस्था में और सासादन सम्यक्त्व की अवस्था में मिथ्यात्वनिमि त्तक बंध नहीं होता है। इसके पश्चात् मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध भजनीय है अर्थात् मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीवों के तन्निमित्तक बन्ध होता है और अन्य गुणस्थान को प्राप्त हुए जीवों के तन्निमित्तक बन्ध नहीं होता है ।।8।। उपशम सम्यक्त्व की गति अंतो मुहुत्तमद्धं सव्वो वसमेण होइ उवसंतो। तेण परं उदओ खलु तिण्णेक्कदरस्स कम्मस्स।।७।। अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशम से अर्थात् दर्शन मोहनीय के सभी भेदों के उपशम से जीव उपशान्त अर्थात् उपशम सम्यग्दृष्टि रहता है। इसके पश्चात् नियम से उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, इन तीन कर्मों में से किसी एक कर्म का उदय होता है।।७।। दर्शन मोह के अबन्धक सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहस्साबंधगो भणिदो। वेदगसम्माइट्ठी खइओ व अबंधगो होदि।।10।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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