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________________ 132 धवला उद्धरण सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शन मोहनीय कर्म का अबंधक अर्थात् बन्ध नहीं करने वाला कहा गया है। इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा ‘च' शब्द से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी दर्शन मोहनीय कर्म का अबन्धक होता है ।।।10।। सर्वोपशम और देशोपशम सम्मत्तपढमलंंभो सव्वोवसमेण तह वियट्ठेण । भजिदव्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ।।11।। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का प्रथम बार लाभ सर्वोप से होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीव के अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्व को प्राप्त किया था, किन्तु पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त होकर और वहाँ सम्यक्त्व प्रकृति एवं सम्यग्मिथ्यात्व कर्म की उद्वेलना कर बहुत काल तक मिथ्यात्व-सहित परिभ्रमण कर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त किया है, ऐसे जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व का लाभ भी सर्वोपशम से होता है, किन्तु जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर अभीक्ष्ण अर्थात् जल्दी ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को ग्रहण करता है वह सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है। (मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीन कर्मों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं तथा सम्यक्त्व प्रकृति सम्बन्धी देशघाती स्पर्धकों के उदय को देशोपशम कहते हैं। ) ।।11।। अनादि और सादि मिथ्यादृष्टि सम्मत्तपढमलंंभस्सणंतरंतरं पच्छदो य मिच्छत्तं । लंभस्स अपढमस्स दु भजिदव्वं पच्छदो होदि ।।12।। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के जो सम्यक्त्व का प्रथम बार लाभ होता है उसके अनन्तर पूर्व मिथ्यात्व का उदय होता है, किन्तु सादि मिथ्यादृष्टि जीव के जो सम्यक्त्व का अप्रथम अर्थात् दूसरी, तीसरी आदि बार लाभ
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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