SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धवला उद्धरण 130 सायारे पट्ठवओ पिट्ठवओ मज्झिमो य भयणिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दु जहण्णए तेउलेस्साए।।5।। साकार अर्थात् ज्ञानोपयोग की अवस्था में ही जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व का प्रस्थापक अर्थात् प्रारम्भ करने वाला होता है, किन्तु निष्ठज्ञपरक अर्थात् उसे सम्पन्न करने वाला, मध्य अवस्थावर्ती जीव भजनीय है अर्थात् वह साकारोपयोगी भी हो सकता है, अनाकारोपयोगी भी हो सकता है। मनोयोग आदि तीनों योगों में से किसी भी एक योग में वर्तमान जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। कम से कम तेजोलेश्या के जघन्य अंश में वर्तमान जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है यह मनुष्य और तिर्यञ्चों की अपेक्षा जानना चाहिये।।5।। मिच्छ त्तवेदणीयं कम उवसामगस्स बोद्धव्व। उवसंते आसाणे तेण परं होइ भयणिज्ज।।6।। उपशामक के जबतक अन्तर प्रवेश नहीं होता है तबतक मिथ्यात्व वेदनीय कर्म का उदय जानना चाहिए। दर्शन मोहनीय के उपशान्त होने पर अर्थात् उपशम सम्यक्त्व के काल में और सासादन काल में मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं रहता है, किन्तु उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय भजनीय है अर्थात् किसी के उसका उदय होता भी है और किसी के नहीं भी होता है।।6।। सव्वम्हि ट्ठिदिविसेसे उवसंता तिण्णि होंति कम्मसा। एक्कम्हि य अणुभागे णियमा सव्वे ट्ठिदिविसेसा।।7।। तीनों कर्मांश अर्थात मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति, ये तीनों कर्म दर्शन मोहनीय की उपशान्त अवस्था में सर्व स्थिति विशेषों के साथ उपशान्त रहते हैं, अर्थात् उन तीनों कर्मों के एक भी स्थिति का उस समय उदय नहीं रहता है तथा एक ही अनुभाग में उन तीनों कर्माशों के सभी स्थिति विशेष अवस्थित रहते हैं, अर्थात् अन्तर से बाहिरी
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy