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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७५६ विचार रत्नसार उ०- ज्यां मिथ्यात्वनी पुष्टि न थाय, मार्ग बिरुद्ध न प्रकाशे, आत्मस्वरूप उपादेयरूपे प्ररूपे, तथा शुभ क्रियाने अत्यादरपणे प्ररुपे, शुभ क्रियाना फळनी वांछा न करावे, पापनी आसेवना टाळे, तिरस्कार रखावे इत्यादि आगमोक्तरीते शुद्ध प्ररूपणा ते देशना कहीये. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ प्र० - पुण्य क्रिया अत्यादरपणे सेबवी, पण तेना फळती वांछा न करवी तेनुं रहस्य शुं ? उ०- जो पुण्यक्रिया शुभ व्यापारे शुभयोगे न आदरे तो मार्ग विरुद्ध थाय, परंपराए पण वीतराग मार्गे न जोडाय: अने जो पुण्यना फळनी वांछा करे तो निदान ( नियाणा ) रूप मिथ्यात्व परिणमे जो सहजस्वरूपे शुभ क्रिया करे तो कर्मनो काट निवारी afra मुक्तिपद पामे; ए रहस्य छे. ७ प्र० - हेय, ज्ञेय, उपादेय एटले शुं ? उ०- समभावे हेय, यथायें ज्ञेय, स्वरूपे उपादेयः स्त्रांरांश के आत्मा स्वभावमा रहेतां सर्व अनात्मिक परभावनो हेय एटले त्याग थाय छे; यथार्थ ज्ञान थथे ज्ञेय एटले जागवा योग्य पदार्थोनुं ज्ञान थाय छे; अने ज्ञान दर्शनादि गुणोने अनुयायी चेतना थ स्वरूप ग्रहणरुप उपादेय थाय छे; एटले आत्मानं पोतां स्वरूप आत्माए ग्रहण करवुं ते उपादेयनो भावार्थ छे. ८ प्र० - काउससानुं विशेष स्वरुप कहो ? For Private And Personal Use Only
SR No.008661
Book TitleShrimad Devchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages1084
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size15 MB
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