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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] स्याद्वाद-अधिकार २२९ त्याग करता हुआ, ऐसा है एकान्तवादी। किसके निमित्त ज्ञेय परिणति ज्ञानको हेय करती है ? "स्वक्षेत्रस्थितये' [स्वक्षेत्र] ज्ञानके चैतन्यप्रदेशकी [ स्थितये] स्थिरताके निमित्त। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानवस्तु ज्ञेयके प्रदेशोंके जानपनासे रहित होवे तो शुद्ध होवे ऐसा मानता है एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव। उसके प्रति स्याद्वादी कहता है -"तु स्याद्वादी तुच्छतां न अनुभवति" [तु] एकान्तवादी मानता है वैसा नहीं है, स्याद्वादी मानता है वैसा है। [स्याद्वादी] अनेकान्तदृष्टि जीव [तुच्छताम्] ज्ञानवस्तु ज्ञेयके क्षेत्रको जानती है, अपने प्रदेशोंसे सर्वथा शून्य है ऐसा [न अनुभवति] नहीं मानता है। ज्ञानवस्तु ज्ञेयके क्षेत्रको जानती है, ज्ञेयक्षेत्ररूप नहीं है ऐसा मानता है। कैसा है स्याद्वादी ? ''त्यक्तार्थ: अपि'" ज्ञेयक्षेत्रकी आकृतिरूप परिणमता है ज्ञान ऐसा मानता है तो भी ज्ञान अपने क्षेत्ररूप है ऐसा मानता है। और कैसा है स्याद्वादी ? 'स्वधामनि वसन्' ज्ञानवस्तु अपने प्रदेशोंमें है ऐसा अनुभवता है। और कैसा है ? ''परक्षेत्रे नास्तितां विदन' [परक्षेत्रे] ज्ञेयवस्तुकी आकृतिरूप परिणमा है ज्ञान उसमें [नास्तितां विदन] नास्तिपना मानता है अर्थात् जानता है तो जानो तथापि एतावन्मात्र ज्ञानका क्षेत्र नहीं है ऐसा मानता है स्याद्वादी। और कैसा है ? "परात् आकारकर्षी'' परक्षेत्रकी आकृतिरूप परिणमी है ज्ञानकी पर्याय, उससे भिन्नरूपसे ज्ञानवस्तुके प्रदेशोंका अनुभव करनेमें समर्थ है, इसलिए स्याद्वाद वस्तुस्वरूपका साधक, एकान्तपना वस्तुस्वरूपका घातक। इस कारण स्याद्वाद उपादेय है।। ९-२५५ ।। [शार्दूलविक्रीडित] पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन् सीदत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छ: पशुः। अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन स्याद्वादवेदी पुन: पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि।।१०-२५६ ।। [हरिगीत] निजज्ञान के अज्ञान से गत काल में जाने गये। जो ज्ञेय उनके नाशसे निज नाश माने अज्ञजन।। नष्ट हों परज्ञेय पर ज्ञायक सदा कायम रहे। निजकाल से अस्तित्व है-यह जानते हैं विज्ञजन।।२५६ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तुको पर्यायमात्र मानता है, द्रव्यरूप नहीं मानता है। तिस कारण ज्ञेयवस्तुके अतीत अनागत वर्तमानकाल सम्बन्धी अनेक अवस्थाभेद हैं, उनको जानते हुए ज्ञानके पर्यायरूप अनेक अवस्था भेद होते हैं। उनमें ज्ञेयसम्बन्धी पहला अवस्थाभेद विनशता है। उस अवस्थाभेदके विनाश होनेपर उसकी आकृतिरूप परिणमा ज्ञानपर्यायका अवस्थाभेद भी विनशता है। उसके-अवस्थाभेदके विनाश होनेपर एकान्तवादी मूलसे ज्ञानवस्तुका Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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