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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २२८ [ भगवान् श्री कुन्दकुन्द - भावार्थ इस प्रकार है कि वह वस्तुको साध सकता है। कैसा है स्याद्वादी ? स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभस: '' [ स्वक्षेत्र ] समस्त परद्रव्यसे भिन्न निजस्वरूप चैतन्यप्रदेश उसकी [ अस्तितया ] सत्तारूपसे [ निरुद्धरभसः ] परिणमा है ज्ञानका सर्वस्व जिसका, ऐसा है स्याद्वादी । और कैसा है ? ' आत्म-निखातबोध्यनियतव्यापारशक्तिः भवन्'' [ आत्म ] ज्ञानवस्तुमें [ निखात ] ज्ञेय प्रतिबिम्बरूप है जो ऐसा [ बोध्यनियतव्यापार ] ज्ञेय - ज्ञायकरूप अवश्य सम्बन्ध, ऐसा [ शक्ति: ] जाना है ज्ञानवस्तुका सहज जिसने ऐसा [ भवन् ] होता हुआ । भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानमात्र जीववस्तु परक्षेत्रको जानता है ऐसा सहज है । परन्तु अपने प्रदेशोंमें है पराये प्रदेशोंमें नहीं है ऐसा मानता है स्याद्वादी जीव, इसलिए वस्तुको साध सकता है अनुभव कर सकता है ।। ८-२५४ ।। - [शार्दूलविक्रीडित] समयसार - कलश स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात् तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन्। स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्।। ९-२५५।। [ हरिगीत ] ही रहूँ निजक्षेत्र में इस भाव से परक्षेत्रगत । जो ज्ञेय उनके साथ ज्ञायकभाव भी परित्याग कर ।। हों तुच्छता को प्राप्त शठ पर ज्ञानीजन परक्षेत्रगत । रे छोड़कर सब ज्ञेय वे निजक्षेत्र को छोड़े नहीं । । २५५ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई मिथ्यादृष्टि एकान्तवादी जीव ऐसा है कि वस्तुको द्रव्यरूप मानता है, पर्यायरूप नहीं मानता है, इसलिए ज्ञेयवस्तुके प्रदेशोंको जानता हुआ ज्ञानको अशुद्धपना मानता है। ज्ञानका ऐसा ही स्वभाव है- वह ज्ञानकी पर्याय है ऐसा नहीं मानता है। उसके प्रति उत्तर ऐसा कि ज्ञानवस्तु अपने प्रदेशोंमें है, ज्ञेयके प्रदेशोंको जानती है ऐसा स्वभाव है, अशुद्धपना नहीं है ऐसा मानता है स्याद्वादी । यही कहते है- ' पशुः प्रणश्यति' [ पशुः ] एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव [ प्रणश्यति ] वस्तुमात्र साधनेसे भ्रष्ट है - अनुभव करनेसे भ्रष्ट है। कैसा होकर भ्रष्ट है ? " तुच्छीभूय' तत्त्वज्ञानसे शून्य होकर । और कैसा है ? 'अर्थ: सह चिदाकारान् वमन्'' [अर्थै: सह ] ज्ञानगोचर हैं जो ज्ञेयके प्रदेश उनके साथ [ चिदाकारान् ] ज्ञानकी शक्तिको अथवा ज्ञानके प्रदेशोंको [ वमन् ] मूलसे वमन किया है अर्थात् उनका नास्तिपना जाना है जिसने ऐसा है । और कैसा है ? " पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात्'' [ पृथग्विध ] पर्यायरूप जो [परक्षेत्र ] ज्ञेयवस्तुके प्रदेशोंको जानते हुए होती है उनकी आकृतिरूप ज्ञानकी परिणति उस रूप [ स्थित ] परिणमती जो [ अर्थ ] ज्ञानवस्तु उसको [ उज्झनात् ] ऐसा ज्ञान अशुद्ध है ऐसी बुद्धिकर Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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