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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २३० समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द विनाश मानता है। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि ज्ञानवस्तु अवस्थाभेद द्वारा विनशती है, द्रव्यरूपसे विचारनेपर अपना जानपनारूप अवस्था द्वारा शाश्वत है, न उपजती है न विनशती है ऐसा समाधान स्याद्वादी करता है। यही कहते हैं-'पशुः सीदति एव'' [ पशुः] एकान्तवादी [ सीदति] वस्तुके स्वरूपको साधनेके लिए भ्रष्ट है। [ एव ] अवश्य ऐसा है। कैसा है एकान्तवादी ? ''अत्यन्ततुच्छ:'' वस्तुके अस्तित्वके ज्ञानसे अति ही शून्य है। और कैसा है ? "न किञ्चन अपि कलयन्'' [न किञ्चन] ज्ञेय अवस्थाका जानपनामात्र ज्ञान है, उससे भिन्न कुछ वस्तुरूप ज्ञानवस्तु नहीं है [अपि] अंशमात्र भी नहीं है। [कलयन्] ऐसी अनुभवरूप प्रतीति करता है। और कैसा है ? ''पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन्' [ पूर्व] किसी पहले अवसरमें [आलम्बित] जानकर उसकी आकृतिरूप हुई जो [बोध्य] ज्ञेयाकार ज्ञानपर्याय उसके [ नाशसमये] विनाशसम्बन्धी किसी अन्य अवसरमें [ज्ञानस्य] ज्ञानमात्र जीव वस्तुका [ नाशं विदन] नाश मानता है। ऐसा है एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव। उसको स्याद्वादी सम्बोधन करता है -"पुनः स्याद्वादवेदी पूर्णः तिष्ठति'' [पुनः ] एकान्तदृष्टि जिस प्रकार कहता है उस प्रकार नहीं है, स्याद्वादी जिस प्रकार मानता है उस प्रकार है- [स्याद्वादवेदी] अनेकान्त अनुभवशील जीव [ पूर्ण: तिष्ठति] त्रिकालगोचर ज्ञानमात्र जीव वस्तु ऐसा अनुभव करता हुआ उस पर दृढ़ है। कैसा दृढ़ है ? "बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि'' [ बाह्यवस्तुषु] समस्त ज्ञेय अथवा ज्ञेयाकार परिणम ज्ञानपर्यायके अनेक भेद सो वे [ मुहुः भूत्वा ] अनेक पर्यायरूप होते हैं [ विनश्यत्सु अपि] अनेक बार विनाशको प्राप्त होते हैं तो भी दृढ़ रहता है। और कैसा है ? "अस्य निजकालतः अस्तित्वं कलयन्'' [अस्य] ज्ञानमात्र जीव वस्तुका [ निजकालतः] त्रिकाल शाश्वत ज्ञानमात्र अवस्थासे [अस्तित्वं कलयन् ] वस्तुपना अथवा अस्तिपना अनुभवता है स्याद्वादी जीव।। १०-२५६ ।। [शार्दूलविक्रीडित] अर्थालम्बनकाल एव कलयन् ज्ञानस्य सत्त्वं बहिज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन पशुर्नश्यति। नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुञ्जीभवन्।।११-२५७ ।। [हरिगीत] अर्थावलम्बनकाल में ही ज्ञान का अस्तित्व है। यह मानकर परज्ञेयलोभी लोक में आकुल रहें ।। परकाल से नास्तित्व लखकर स्यादवादी विज्ञजन। ज्ञानमय आनन्दमय निज आतमा में दृढ़ रहें।।२५७ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई मिथ्यादृष्टि एकान्तवादी ऐसा है जो वस्तुको द्रव्यमात्र मानता है, पर्यायरूप नहीं मानता है, इसलिए ज्ञेयकी अनेक अवस्थाओंको जानता है ज्ञान। उनको जानता हुआ उन आकृतिरूप परिणमता है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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