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________________ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates भावास्रव कहने पर मोह, राग, द्वेषरूप विभाव अशुद्ध चेतन परिणाम सो ऐसा परिणाम यद्यपि जीव के मिथ्यादृष्टि अवस्थामें विद्यमान ही था तथापि सम्यक्त्वरूप परिणमने पर अशुद्ध परिणाम मिटा । इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव भावास्रव से रहित है। इससे ऐसा अर्थ निपजा कि सम्यग्दृष्टि जीव निरास्रव है । ' [ कलश १९९ ] सम्यग्दृष्टि कर्मबन्ध कर्ता क्यों नहीं इसका निर्देश 'कोई अज्ञानी जीव ऐसा मानेगा कि सम्यग्दृष्टि जीवके चारित्रमोहका उदय तो है, वह उदयमात्र होनेपर आगामी ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध होता होगा ? समाधान इस प्रकार हैचारित्रमोह का उदयमात्र होने पर बन्ध नहीं है। उदय होनेपर जो जीवके राग, द्वेष, मोह परिणाम हो तो कर्मबन्ध होता है, अन्यथा सहस्र कारण हो तो भी कर्मबन्ध नहीं होता । राग, द्वेष, मोह परिणाम भी मिथ्यात्व कर्म के उदयके सहारा है, मिथ्यातव के जाने पर अकेले चारित्रमोह के उदय के सहाराका राग, द्वेष, मोह परिणाम नहीं है । इस कारण सम्यग्दृष्टिके राग, द्वेष, मोह परिणाम होता नहीं, इसलिये कर्मबन्धका कर्ता सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होता। ' [ कलश १२१ ] सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं है तात्पर्य ' जब जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब चारित्रमोहके उदयमें बन्ध होता है, परन्तु बन्धशक्ति हीन होती है, इसलिये बन्ध नहीं कहलाता । ' [ कलश १२४ ] निर्विकल्पका अर्थ काष्ठ के समान जड़ नहीं इस तथ्यका खुलासा ' शुद्धस्वरूपके अनुभवके काल जीव काष्ठके समान जड़ है ऐसा भी नहीं है, सामान्यतया सविकल्पी जीवके समान विकल्पी भी नहीं है, भावश्रुतज्ञानके द्वारा कुछ निर्विकल्प वस्तुमात्रको अवलम्बता है।' [ कलश १२५ ] शुद्धज्ञान में जतिपना कैसे घटता है आस्रव तथा संवर परस्पर अति ही वैरी है, इसलिये अनन्त कालसे लेकर सर्व जीवराशि विभाव मिथ्यात्वरूप परिणमता है, इस कारण शुद्ध ज्ञान का प्रकाश नहीं है। इसलिये आस्रव के सहारे सर्व जीव हैं। काललब्धि पाकर कोई आसन्न भव्य जीव सम्यक्त्वरूप स्वभाव परिणति परिणमता है, इससे शुद्ध प्रकाश प्रगट होता है, इससे कर्मका आस्रव मिटता है, इससे शुद्ध ज्ञानका जीतपना घटित होता है। ' [ कलश १३० ] भेदज्ञान भी विकल्प है इसका सकारण निर्देश 'निरन्तर शुद्ध स्वरूपका अनुभव कर्त्तव्य है । जिस काल सकल कर्मक्षय लक्षण मोक्ष होगा उस काल समस्त विकल्प सहज ही छूट जायेंगे। वहाँ भेदविज्ञान भी एक विकल्प रूप है, केवलज्ञानके समान जीवका शुद्ध स्वरूप नहीं है, इसलिये सहज ही विनाशीक है।' Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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