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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १७६ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [शार्दूलविक्रीडित] अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः। इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता।। ५-१९७।। [रोला] प्रकृतिस्वभावरत अज्ञानी हैं सदाभोगते, प्रकृतिस्वभाव से विरत ज्ञानिजन कभी न भोगें। निपुणजनो! निजशुद्धातममय ज्ञानभाव को, अपनाओ तुम सदा त्याग अज्ञानभाव को।।१९७।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यतां'' [निपुणैः ] सम्यग्दृष्टि जीवोंको [अज्ञानिता] परद्रव्यमें आत्मबुद्धि ऐसी मिथ्यात्वपरिणति [त्यज्यतां] जिस प्रकार मिटे उस प्रकार सर्वथा मेटने योग्य है। कैसे हैं सम्यग्दृष्टि जीव ? " महसि अचलितैः'' शुद्ध चिद्रूपके अनुभवमें अखंड धारारूप मग्न है। कैसा है शुद्ध चिद्रूपका अनुभव ? ''शुद्धैकात्ममये' [शुद्ध ] समस्त उपाधिसे रहित ऐसा जो [ एकात्म] अकेला जीवद्रव्य [ मये] उसके स्वरूप है। और क्या करना है ? "ज्ञानिता आसेव्यतां'' शुद्ध वस्तुके अनुभवरूप सम्यक्त्व परिणतिरूप सर्व काल रहना उपादेय है। क्या जानकर ऐसा होवे ? "इति एवं नियमं निरूप्य'' [इति] जिस प्रकार कहते हैं- [एवं नियमं] ऐसे वस्तुस्वरूप परिणमनके निश्चयको [ निरूप्य] अवधारकरके। वह वस्तुका स्वरूप कैसा है? 'अज्ञानी नित्यं वेदक: भवेत्'' [अज्ञानी] मिथ्यादृष्टि जीव [नित्यं] सर्व काल [ वेदक: भवेत्] द्रव्यकर्मका भावकर्मका भोक्ता होता है ऐसा निश्चय है। मिथ्यात्वका परिणमन ऐसा ही है। कैसा है अज्ञानी ? ''प्रकृतिस्वभावनिरतः'' [प्रकृति] ज्ञानावरणादि आठ कर्मके [ स्वभाव] उदय होनेपर नाना प्रकार चतुर्गति शरीर रागादिभाव सुख-दुःखपरिणति इत्यादिमें [निरतः] आपा जानकर एकत्वबुद्धिरूप परिणमा है। "तु ज्ञानी जातु वेदक: नो भवेत् '' [ तु] मिथ्यात्वके मिटनेपर ऐसा भी है कि [ ज्ञानी] सम्यग्दृष्टि जीव [जातु] कदाचित् [ वेदक: नो भवेत् ] द्रव्यकर्मका भावकर्मका भोक्ता नहीं होता ऐसा वस्तुका स्वरूप है। कैसा है ज्ञानी ? 'प्रकृतिस्वभावविरतः'' [ प्रकृति] कर्मके [स्वभाव ] उदयके कार्यमें [ विरतः] हेय जानकर छूट गया है स्वामित्वपना जिसका, ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है कि जीवके सम्यक्त्व होनेपर अशुद्धपना मिटा है, इसलिए भोक्ता नहीं है।। ५१९७।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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