SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार १७५ नोकर्मसे भिन्न है। "स्फुरचिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभवनः '' [ स्फुरत् ] प्रकाशरूप ऐसे [ चिज्ज्योतिर्भिः] चेतना गुणके द्वारा [छुरित] प्रतिबिम्बित हैं [ भुवनाभोगभवनः ] अनन्त द्रव्य अपनी अतीत अनागत वर्तमान समस्त पर्याय सहित जिसमें, ऐसा है। "तथापि किल इह अस्य प्रकृतिभिः यत् असौ बन्धः स्यात्'' [तथापि] शुद्ध है जीवद्रव्य तो भी [किल ] निश्चयसे [इह] संसार अवस्थामें [ अस्य] जीवको [प्रकृतिभिः ] ज्ञानावरणादि कर्मरूप [ यत् असौ बन्धः स्यात् ] जो कुछ बन्ध होता है "सः खलु अज्ञानस्य कः अपि महिमा स्फुरति'' [ सः] जो बन्ध होता है वह [खलु] निश्चयसे [अज्ञानस्य कः अपि महिमा स्फुरति] मिथ्यात्वरूप विभाव परिणमनशक्तिका कोई ऐसा ही स्वभाव है। कैसा है ? ''गहनः" असाध्य है। भावार्थ इस प्रकार है - जीवद्रव्य संसार अवस्थामें विभावरूप मिथ्यात्व राग द्वेष मोहपरिणामरूप परिणमा है, इस कारण जैसा परिणमा है वैसे भावोंका कर्ता होता है। अशुद्ध भावोंका कर्ता होता है। अशुद्ध भावोंके मिटनेपर जीवका स्वभाव अकर्ता है।।३–१९५ ।। [अनुष्टुप] भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः। अज्ञानादेव भोक्ताऽयं तदभावादवेदकः।। ४-१९६ ।। [दोहा जैसे कर्तृस्वाव नहीं वैसे भोक्तृसवभाव। भोक्तापना अज्ञान से ज्ञान अभोक्ताभाव।।१९६ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अस्य चितः भोक्तृत्वं स्वभावः न स्मृतः'' [अस्य चितः] चेतन द्रव्यका [भोक्तृत्वं] ज्ञानावरणादि कर्मके फलका अथवा सुख-दुःखरूप कर्मफलचेतनाका अथवा रागादि अशुद्ध परिणामरूप कर्मचेतनाका भोक्ता जीव है ऐसा [ स्वभावः ] जीवद्रव्यका सहज गुण, ऐसा तो [न स्मृतः] गणधरदेवने नहीं कहा है। जीवका भोक्ता स्वभाव नहीं है ऐसा कहा है। दृष्टान्त कहते है - "कर्तृत्ववत्'' जिस प्रकार जीवद्रव्य कर्मका कर्ता भी नही है। 'अयं जीवः भोक्ता" यही जीवद्रव्य अपने सुख-दुःखरूप परिणामको भोगता है ऐसा भी है सो किस कारणसे ? "अज्ञानात् एव'' अनादिसे कर्मका संयोग है, इसलिए मिथ्यात्व राग द्वेषरूप अशुद्ध विभावरूप परिणमा है, इस कारण भोक्ता है। "तदभावात् अवेदक:'' मिथ्यात्वरूप विभाव परिणामका नाश होनेसे जीवद्रव्य साक्षात् अभोक्ता है। भावार्थ इस प्रकार है कि जिस प्रकार जीव-द्रव्यका अनंतचतुष्टय स्वरूप है उस प्रकार कर्मका कर्तापन भोक्तापन स्वरूप नहीं है। कर्मकी उपाधिसे विभावरूप अशुद्ध परिणतिरूप विकार है, इसलिए विनाशीक है। उस विभाव परिणतिके विनाश होनेपर जीव अकर्ता है, अभोक्ता है। आगे मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यकर्मका अथवा भावकर्मका कर्ता है, सम्यग्दृष्टि कर्ता नहीं ऐसा कहते हैं।। ४-१९६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy