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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] आस्रव-अधिकार १०३ अथवा जो कभी सूक्ष्म अबुद्धिपूर्वक राग-द्वेषपरिणामसे बंध होता है, अति ही अल्प बंध होता है तो भी सम्यग्दृष्टि जीवके बंध होता है ऐसा कोई तीनों कालमें कह सकता नहीं। आगे कैसा होनेसे बंध नहीं ? 'सकलरागद्वेषमोहव्युदासात्'' जिस कारणसे ऐसा है उस कारणसे बंध नहीं घटित होता। [ सकल ] जितने शुभरूप अथवा अशुभरूप [ राग] प्रीतिरूप परिणाम [ द्वेष ] दुष्ट परिणाम [ मोह] पुद्गलद्रव्यकी विचित्रतामें आत्मबुद्धि ऐसा विपरीतरूप परिणाम, ऐसे [व्युदासात्] तीनों ही परिणामोंसे रहितपना ऐसा कारण है, इससे सामग्रीके विद्यमान होते हुए भी सम्यग्दृष्टि जीव कर्मबंधका कर्ता नहीं है। विद्यमान सामग्री जिस प्रकार है उस प्रकार कहते हैं-''यद्यपि पूर्वबद्धाः प्रत्ययाः द्रव्यरूपाः सत्तां न हि विजहति'' [ यद्यपि] जो ऐसा भी है कि [ पूर्वबद्धाः] सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के पहले जीव मिथ्यादृष्टि था, इससे मिथ्यात्व, राग, द्वेषरूप परिणामके द्वारा बाँधे थे जो [ द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः] मिथ्यात्वरूप तथा चारित्रमोहरूप पुद्गल कर्मपिण्ड, वे [ सत्तां] स्थितिबंधरूप होकर जीवके प्रदेशोंमें कर्मरूप विद्यमान हैं ऐसे अपने अस्तित्वको [ न हि विजहति] नहीं छोड़ते हैं। उदय भी देते हैं ऐसा कहते हैं- 'समयम् अनुसरन्तः अपि''[समयम् ] समय समय प्रति अखंडित धाराप्रवाहरूप [अनुसरन्तः अपि] उदय भी देते हैं; तथापि सम्यग्दृष्टि कर्मबंधका कर्ता नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है – कोई अनादि कालका मिथ्यादृष्टि जीव काललब्धिको प्राप्त करता हुआ सम्यक्त्वगुणरूप परिणमा, चारित्रमोहकर्मकी सत्ता विद्यमान है, उदय भी विद्यमान है, पंचेन्द्रिय विषयसंस्कार विद्यमान है, भोगता भी है, भोगता हुआ ज्ञानगुणके द्वारा वेदक भी है; तथापि जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव आत्मस्वरूपको नहीं जानता है, कर्मके उदयको आपकर जानता है, इससे इष्ट-अनिष्ट विषयसामग्रीको भोगता हुआ राग-द्वेष करता है, इससे कर्मका बंधक होता है उस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव आत्माको शुद्धस्वरूप अनुभवता है, शरीर आदि समस्त सामग्रीको कमेका उदय जानता है, आये उदयको खपाता है। परतु अतरगमें परम उदासीन है. इसलिए सम्यग्दष्टि जीवको कर्मबंध नहीं है। ऐसी अवस्था सम्यग्दष्टि जीवके सर्व काल नहीं। जब तक सकल कर्मोका क्षय कर निर्वाणपदवीको प्राप्त करता है तब तक ऐसी अवस्था है। जब निर्वाणपद प्राप्त करेगा उस कालका तो कुछ कहना ही नहीं - साक्षात् परमात्मा है।। ६-११८ ।। [अनुष्टुप] रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः। तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणम्।।७-११९ ।। [दोहा राग-द्वेष अर मोह ही केवल बंधकभाव । ज्ञानी के ये हैं नहीं तातें बंध अभाव।।११९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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