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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १०२ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [अनुष्टुप] सर्वस्यामेव जीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ। कुतो निराम्रो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः।। ५-११७ ।। [दोहा] द्रव्यास्रव की संतति विद्यमान सम्पूर्ण। फिर भी ज्ञानी निरास्रव कैसे हो परिपूर्ण ।।११७।। खंडान्वय सहित अर्थ:- यहाँ कोई आशंका करता है – सम्यग्दृष्टि जीव सर्वथा निरास्रव कहा और ऐसा ही है। परन्तु ज्ञानावरणादि द्रव्यपिण्ड जैसा था वैसा ही विद्यमान है। तथा उस कर्मके उदयमें नाना प्रकारकी भोगसामग्री जैसी थी वैसी ही है। तथा उस कर्मके उदयमें नाना प्रकारके सुख-दुःखको भोगता है, इन्द्रिय-शरीरसम्बन्धी भोगसामग्री जैसी थी वैसी ही इन्टिग पारीरसम्बन्धी भोगसामग्री जैसी थी वैसी ही है। सम्यग्दष्टि जीव उस सामग्री को भोगता भी है। इतनी सामग्री के रहते हुए निरास्रवपना कैसे घटित होता है ऐसा कोई प्रश्न करता है -"द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ सर्वस्याम् एव जीवन्त्यां ज्ञानी नित्यम् निराम्रवः कुतः" [द्रव्यप्रत्यय] जीवके प्रदेशोंमें परिणमा है पुद्गलपिण्डरूप अनेक प्रकारका मोहनीयकर्म, उसकी [सन्ततौ] संतति-स्थितिबंधरूप बहुत काल पर्यन्त जीवके प्रदेशोंमें रहती है। [ सर्वस्याम् ] जितनी होती, जैसी होती [ जीवन्त्यां] उतनी ही है, विद्यमान है, वैसी ही है। [ एव] निश्चयसे फिर भी [ ज्ञानी] सम्यग्दृष्टि जीव [नित्यम् निराम्रवः] सर्वथा सर्व काल आस्रवसे रहित है ऐसा जो कहा सो [ कुतः] क्या विचार करके कहा ? "चेत् इति मतिः'' [चेत् ] भो शिष्य! यदि [इति मतिः] तेरे मनमें ऐसी आशंका है तो उत्तर सुन , कहते हैं ।। ५-११७ ।। __ [मालिनी] विजहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः। तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासादवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः।। ६-११८ ।। [हरिगीत] पूर्व में जो द्रव्यप्रत्यय बंधे थे अब वे सभी। निजकाल पाकर उदित होंगे सुप्त सत्ता में अभी।। यद्यपि वे हैं अभी पर राग-द्वेषाभाव से। अंतर अमोही ज्ञानियों को बंध होता है नहीं।।११८ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "तदपि ज्ञानिनः जातु कर्मबन्धः न अवतरति' [ तदपि] तो भी [ ज्ञानिनः] सम्यग्दृष्टि जीवके [ जातु] कदाचित् किसी भी नयसे [कर्मबन्धः] ज्ञानावरणादिरूप पुद्गलपिण्डका नूतन आगमन-कर्मरूप परिणमन [ न अवतरति] नहीं होता। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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