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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १०४ समयसार-कलश [ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द __ खंडान्वय सहित अर्थ:- ऐसा कहा कि सम्यग्दृष्टि जीवके बंध नहीं है तो ऐसी प्रतीति जिस प्रकार होती है उस प्रकार और कहते हैं- "यत् ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः ततः अस्य बन्धः न'' [यत् जिस कारण [ ज्ञानिनः] सम्यग्दृष्टि जीवके [ राग] रंजक परिणाम [ द्वेष ] उद्वेग [विमोहानां] प्रतीतिका विपरीतपना ऐसे अशुद्ध भावों की [ असम्भव:] विद्यमानता नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है – सम्यग्दृष्टि जीव कर्मके उदयमें रंजायमान नहीं होता, इसलिए रागादिक नहीं है [ततः] उस कारण से [अस्य] सम्यग्दृष्टि जीवके [बन्धः न] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मका बंध नहीं है । “एव'' निश्चयसे ऐसा ही द्रव्यका स्वरूप है। “हि ते बन्धस्य कारणम्'' [हि] जिस कारण [ते] राग, द्वेष , मोह ऐसे अशुद्ध परिणाम [बन्धस्य कारणम् ] बंधके कारण हैं। भावार्थ इस प्रकार है – कोई अज्ञानी जीव ऐसा मानेगा कि सम्यग्दृष्टि जीवके चारित्रमोहका उदय तो है, वह उदयमात्र होनेपर आगामी ज्ञानावरणादि कर्मका बंध होता होगा? समाधान इस प्रकार है -चारित्रमोहका उदयमात्र होनेपर बंध नहीं है। उदयके होनेपर जो जीवके राग, द्वेष, मोह परिणाम हो तो कर्मबंध होता है अन्यथा सहस्र कारण हो तो भी कर्मबंध नहीं होता। राग, द्वेष, मोह परिणाम भी मिथ्यात्वकर्मके उदयके सहारे हैं, मिथ्यात्वके जानेपर अकेले चारित्रमोहके उदयके सहारेका राग, द्वेष , मोह परिणाम नहीं है। इस कारण सम्यग्दृष्टिके राग, द्वेष, मोह परिणाम होता नहीं, इसलिए कर्मबंधका कर्ता सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होता।। ७–११९ ।। [वसन्ततिलका] अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्नमैकाग्यमेव कलयन्ति सदैव ये ते। रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्।।८-१२०।। [हरिगीत] सदा उद्धत चिह्न वाले शुद्धनय अभ्यास से । निज आत्म की एकाग्रता के ही सतत अभ्यास से ।। रागादि विरहित चित्तवाले आत्मकेन्द्रित ज्ञानिजन। बंधविरहित अर अखण्डित आत्मा को देखते।।१२०।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "ये शुद्धनयं एकण्यम् एव सदा कलयन्ति'' [ये] जो कोई आसन्नभव्य जीव [शुद्धनयम् ] निर्विकल्प शुद्ध चैतन्य वस्तुमात्रका [ ऐकण्यम् ] समस्त रागादि विकल्पसे चित्तका निरोध कर [ एव] चित्तमें निश्चय लाकर [ कलयन्ति] अखंडित धाराप्रवाहरूप अभ्यास करते हैं [ सदा] सर्व काल। कैसा है ? ''उद्धतबोधचिह्नम्'' [ उद्धत] सर्व काल प्रगट जो [ बोध ] ज्ञानगुण वही है [ चिह्नम् ] लक्षण जिसका, ऐसा है। क्या करके 'अध्यास्य'' जिस किसी प्रकार मनमें प्रतीति लाकर।" ते एव समयस्य सारम् पश्यन्ति'' [ ते एव] वे ही जीव निश्चयसे [ समयस्य सारम् ] सकल कर्मसे रहित अनंतचतुष्टय बिराजमान परमात्मपदको [ पश्यन्ति] Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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