SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] आस्रव-अधिकार १०१ एक परिणाम बुद्धिपूर्वक हैं, एक परिणाम अबुद्धिपूर्वक हैं। विवरण – बुद्धिपूर्वक कहनेपर जो सब परिणाम मनके द्वारा प्रवर्तते हैं, बाह्य विषयके आधारसे प्रवर्तते हैं। प्रवर्तते हुए वह जीव आप भी जानता है कि मेरा परिणाम इस रूप है। तथा अन्य जीव भी अनुमान करके जानता है जो इस जीवके ऐसा परिणाम है। ऐसा परिणाम बुद्धिपूर्वक कहा जाता है। सो ऐसे परिणामको सम्यग्दृष्टि जीव मेट सकता है, क्यों कि ऐसा परिणाम जीवकी जानकारी में है। शुद्धस्वरूपका अनुभव होनेपर जीवके सहाराका भी है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव पहले ही ऐसा परिणाम मेटता है। अबुद्धिपूर्वक परिणाम कहनेपर पाँच इन्द्रिय और मनके व्यापारके बिना ही मोहकर्मके उदयका निमित्त कर मोह राग द्वेषरूप अशुद्ध विभाव परिणामरूप आप स्वयं जीवद्रव्य असंख्यात प्रदेशोंमें परिणमता है सो ऐसा परिणमन जीवकी जानकारीमें नहीं है और जीवके सहाराका भी नहीं है, इसलिए जिस किसी प्रकार मेटा ता नहीं। अतएव ऐसे परिणाम मेटनेके लिए निरंतरपने शुद्धस्वरूपको अनुभवता है, शुद्धस्वरूपका अनुभव करनेपर सहज ही मिटेगा। दूसरा उपाय तो कोई नहीं, इसलिए एक शुद्धस्वरूपका अनुभव उपाय है। और क्या करता हुआ निरास्रव होता है ? "एव परवृत्तिम् सकलां उच्छिन्दन्'' [ एव] अवश्य ही [पर] जितनी ज्ञेयवस्तु है उसमें [वृत्तिम्] रंजकपना ऐसी परिणाम क्रिया, जो [ सकलां] जितनी है शुभरूप अथवा अशुभरूप, उसको [उच्छिन्दन] मूलसे ही उखाड़ता हुआ सम्यग्दृष्टि निरास्रव होता है। भावार्थ इस प्रकार है - ज्ञेय-ज्ञायकका संबंध दो प्रकार है- एक तो जानपनामात्र है, रागद्वेषरूप नहीं है। यथा- केवली सकल ज्ञेयवस्तुको देखते जानते हैं परंतु किसी वस्तमें राग-द्वेष नहीं करते। उसका नाम शद्ध ज्ञानचेतना कहा जाता है। सो सम्यग्दष्टि जीवके शद्ध ज्ञानचेतनारूप जानपना है. इसलिए मोक्षका कारण है- बंधका कारण नहीं है। दसरा जानपना ऐसा जो कितनी ही विषयरूप वस्तुका जानपना भी है और मोहकर्मके उदयका निमित्त पाकर इष्टमें राग करता है, भोगकी अभिलाषा करता है तथा अनिष्टमें द्वेष करता है, अरुचि करता है सो ऐसे राग-द्वेष से मिला हआ जो ज्ञान उसका नाम अशुद्ध चेतनालक्षण कर्मचेतना कर्मफलचेतनारूप कहा जाता है, इसलिए बंधका कारण है। ऐसा परिणमन सम्यग्दृष्टिके नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वरूप परिणाम गया होनेसे ऐसा परिणमन नहीं होता है। ऐसा अशुद्ध ज्ञानचेतनारूप परिणाम मिथ्यादृष्टिके होता है। और कैसा होता हुआ निरास्रव होता है ? "ज्ञानस्य पूर्णः भवन्'' पूर्ण ज्ञानरूप होता हुआ। भावार्थ इस प्रकार है - ज्ञानका खंडितपना यह कि वह राग-द्वेष से मिला हुआ है। राग-द्वेष गये होनेसे ज्ञानका पूर्णपना कहा जाता है। ऐसा होता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव निरास्रव है।। ४–११६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy