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________________ वीतराग-विज्ञान भाग -३ अनुग्रहीत और गृहीत मिथ्यात्व छात्र - यह गृहीत और अगृहीत क्या बला है ? अध्यापक - जो बिना सिखाये अनादि से ही शरीर, रागादि पर-पदार्थों में अहंबुद्धि है, वह तो अगृहीत मिथ्यात्व है और जो कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र के उपदेशादि से अनादि से चली आई उलटी मान्यता की पुष्टि होती है, वह गृहीत मिथ्यात्व है। अगृहीत अर्थात् बिना ग्रहण किया हुआ और गृहीत अर्थात् ग्रहण किया हुआ। छात्र - ऐसे तो गृहीत और अगृहीत मिथ्याज्ञान भी होता होगा? अध्यापक- हाँ ! हाँ !! होता है। जीवादि तत्त्वों के संबंध में जो अनादि से ही अज्ञानता है, वह तो अगृहीत मिथ्याज्ञान है तथा जिसमें विपरीत वर्णन द्वारा रागादि का पोषण किया गया हो, उन शास्त्रों को सही मानकर अध्ययन करना ही गृहीत मिथ्याज्ञान है। छात्र- क्या मिथ्याचारित्र को भी ऐसा ही समझें? अध्यापक - समझें क्या ! है ही ऐसा। अज्ञानी जीव की विषयों में प्रवृत्ति ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है तथा प्रशंसादि के लोभ से जो ऊपरी आचार पाला जाता है, वह गृहीत मिथ्याचारित्र है। बाहरी क्रियाकाण्ड आत्मा (जीव), अनात्मा (अजीव) के ज्ञान और श्रद्धान से रहित होने के कारण सब असफल है। कहा भी है - जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विधि देहदाह। आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ।।१४।। छात्र - अज्ञानी जीव की सब क्रियायें अधर्म क्यों हैं ? जो अच्छी हैं, उन्हें तो धर्म कहना चाहिए? अध्यापक- इसी के उत्तर में तो पण्डित दौलतरामजी कहते हैं : रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत। जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधै जीव लहै अशर्म ॥१२।। अंतर में उठनेवाले राग तथा द्वेषरूप भाव-हिंसा तथा त्रस और स्थावर के घातरूप द्रव्य-हिंसा से सहित जो भी क्रियायें हैं, उन्हें धर्म मानना कुधर्म है। इनमें श्रद्धा रखने से जीव दु:खी होता है। छात्र-इनसे बचने का उपाय क्या है ? अध्यापक-देव-शास्त्र-गुरु का सच्चा स्वरूप समझ कर तो गृहीत मिथ्यात्व से बचा जा सकता है और जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों की सच्ची जानकारीपूर्वक आत्मानुभूति पाकर अगृहीत मिथ्यात्व को दूर किया जा सकता है। छात्र- तो समझाइये न इन सब का स्वरूप? अध्यापक- फिर कभी ........... प्रश्न - १. जीव दुःखी क्यों है ? क्या दुःख से छुटकारा पाया जा सकता है ? यदि हाँ, तो कैसे? २. गृहीत और अगृहीत मिथ्यात्व में क्या अंतर है ? स्पष्ट कीजिए? ३. क्या रागादि के पोषक शास्त्रों का पढ़ना मात्र गृहीत मिथ्याज्ञान है ? ४. संयमी की लोक में पूजा होती है, अत: संयम धारण करना चाहिए - यह युक्तिसंगत है, नहीं तो क्यों? ५. पण्डित दौलतरामजी का परिचय दीजिये। उनकी छहढाला में पहली और दूसरी ढाल में किस बात को समझाया गया है ? स्पष्ट कीजिये?
SR No.008388
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size131 KB
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