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________________ वीतराग-विज्ञान भाग -३ भक्ति और अध्यात्म के साथ ही आपके काव्य में काव्योपादान भी अपने प्रौढ़तम रूप में पाये जाते हैं। भाषा सरल, सुबोध, प्रवाहमयी है; भर्ती के शब्दों का अभाव है। आपके पद हिन्दी गीत-साहित्य के किसी भी महारथी के सम्मुख बड़े ही गर्व के साथ रखे जा सकते हैं। प्रस्तुत अंश आपकी प्रसिद्ध रचना छहढाला की दूसरी ढाल पर आधारित है। पाठ४| अगृहीत और गृहीत मिथ्यात्व अध्यात्मप्रेमी पण्डित दौलतरामजी व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व (संवत् १८५५-१९२३) अध्यात्म-रस में निमग्न रहनेवाले, उन्नीसवीं सदी के तत्त्वदर्शी विद्वान कविवर पण्डित दौलतरामजी पल्लीवाल जाति के नररत्न थे। आपका जन्म अलीगढ़ के पास सासनी नामक ग्राम में हुआ था। बाद में आप कुछ दिन अलीगढ़ भी रहे थे। आपके पिता का नाम टोडरमलजी था। आत्मश्लाघा से दूर रहनेवाले इस महान कवि का जीवन-परिचय अभी पूर्णत: प्राप्त नहीं है, पर इतना निश्चित है कि वे एक साधारण गृहस्थ एवं सरल स्वभावी, आत्मज्ञानी पुरुष थे। आपके द्वारा रचित छहढाला जैनसमाज का बहुप्रचलित एवं समादृत ग्रन्थरत्न है। शायद ही कोई जैनभाई हो, जिसने छहढाला का अध्ययन न किया हो। सभी जैन परीक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रम में इसे स्थान प्राप्त है। इसकी रचना आपने संवत् १८९१ में की थी। आपने इसमें गागर में सागर भरने का सफल प्रयत्न किया है। इसके अलावा आपने अनेक स्तुतियाँ एवं अध्यात्म-रस से ओतप्रोत अनेक भजन लिखे हैं, जो आज भी सारे हिन्दुस्तान की शास्त्र-सभाओं में प्रतिदिन बोले जाते हैं। आपके भजनों में मात्र भक्ति ही नहीं, गूढ़ तत्त्व भी भरे हुए हैं। अगृहीत और गृहीत मिथ्यात्व छात्र - छहढाला में किसकी कथा है? अध्यापक - हमारी, तुम्हारी और सब की कथा है। उसमें तो इस जीव के संसार में घूमने की कथा है। यह जीव अनन्तकाल से चारों गति में भ्रमण कर रहा है, पर इसे कहीं भी सुख प्राप्त नहीं हुआ- यही तो बताया है पहली ढाल में। छात्र - यह संसार में क्यों घूम रहा है और किस कारण से दु:खी है ? अध्यापक- इसी प्रश्न का उत्तर तो दूसरी ढाल में दिया गया है - ऐसे मिथ्या दृग-ज्ञान-वर्णवश, भ्रमत भरत दु:ख जन्म-मर्ण ।।१।। यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर इसप्रकार संसार में घूमता हुआ जन्म-मरण के दुःख उठा रहा है। छात्र - ये मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र क्या हैं, जिनके कारण सब दु:खी हैं ? अध्यापक - जीवादि सात तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा ही मिथ्यात्व है, इसे ही मिथ्यादर्शन भी कहते हैं। जीव, अजीव आदि सात तत्त्व जो तुमने पहले सीखे थे न; वे जैसे हैं, उन्हें वैसे न मानकर उलटा मानना ही विपरीत श्रद्धा है। कहा भी है - जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधैं तिन माँहि विपर्ययत्व ।।२।। छात्र- इस मिथ्यात्व के चक्कर में हम कब से आ गये? अध्यापक - यह तो अनादि से है, जब से हम हैं तभी से है; पर हम इसे बाह्य कारणों से और पुष्ट करते रहते हैं। यह दो प्रकार का होता है। एक अगृहीत मिथ्यात्व और दूसरा गृहीत मिथ्यात्व ।
SR No.008388
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size131 KB
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