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________________ वीतराग-विज्ञान भाग -३ पाठ ५। मैं कौन हूँ? 'मैं' शब्द का प्रयोग हम प्रतिदिन कई बार करते हैं, पर गहराई से कभी यह सोचने का यत्न नहीं करते कि 'मैं' का वास्तविक अर्थ क्या है ? 'मैं' का असली वाच्यार्थ क्या है ? 'मैं' शब्द किस वस्तु का वाचक है ? सामान्य तरीके से सोचकर आप कह सकते हैं - इसमें गहराई से सोचने की बात ही क्या है ? क्या हम इतना भी नहीं समझते हैं कि 'मैं कौन हूँ ? और आप उत्तर भी दे सकते हैं कि मैं बालक हूँ या जवान हूँ, मैं पुरुष हूँ या स्त्री हूँ, मैं पण्डित हूँया सेठ हूँ।' पर मेरा प्रश्न तो यह है कि क्या आप इनके अलावा और कुछ नहीं हैं ? यह सब तो बाहर से दिखनेवाली संयोगी पर्यायें मात्र हैं। मेरा कहना है कि यदि आप बालक हैं तो बालकपन तो एक दिन समाप्त हो जानेवाला है, पर आप तो फिर भी रहेंगे, अत: आप बालक नहीं हो सकते। इसीप्रकार जवान भी नहीं हो सकते; क्योंकि बालकपन और जवानी - यह तो शरीर के धर्म हैं तथा 'मैं' शब्द शरीर का वाचक नहीं है। मुझे विश्वास है कि आप भी अपने को शरीर नहीं मानते होंगे। ऐसे ही आप सेठ तो धन के संयोग से हैं, पर धन तो निकल जानेवाला है, तो क्या जब धन नहीं रहेगा, तब आप भी न रहेंगे? तथा पण्डिताई तो शास्त्रज्ञान का नाम है, तो क्या जब आपको शास्त्रज्ञान नहीं था, तब आप नहीं थे ? यदि थे, तो मालूम होता है कि आप धन और पण्डिताई से भी पृथक् है अर्थात् आप सेठ और पण्डित भी नहीं हैं। तब प्रश्न उठता है कि आखिर मैं हूँ कौन ?' यदि एकबार यह प्रश्न हृदय की गहराई से उठे और उसके समाधान की सच्ची जिज्ञासा जगे तो इसका उत्तर मिलना दुर्लभ नहीं। पर यह 'मैं' पर की खोज में स्व को भूल रहा है। कैसी विचित्र बात है कि खोजनेवाला खोजनेवाले को ही भूल रहा है! सारा जगत पर की सँभाल में इतना व्यस्त नजर आता है कि 'मैं कौन हूँ ?' - यह सोचने समझने की उसे फुर्सत ही नहीं है। 'मैं' शरीर, मन, वाणी और मोह-राग-द्वेष, यहाँ तक कि क्षणस्थायी परलक्ष्यी बुद्धि से भी भिन्न एक त्रैकालिक, शुद्ध, अनादि-अनन्त, चैतन्य, ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ, जिसे आत्मा कहते हैं। जैसे - 'मैं बंगाली हूँ, मैं मद्रासी हूँ और मैं पंजाबी हूँ'; इस प्रान्तीयता के घटाटोप में आदमी यह भूल जाता है कि 'मैं भारतीय हैं और प्रान्तीयता की सघन अनुभूति से भारतीय राष्ट्रीयता खण्डित होने लगती है; उसीप्रकार 'मैं मनुष्य हूँ, देव हूँ, पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, बालक हूँ, जवान हूँ' आदि में आत्मबुद्धि के बादलों के बीच आत्मा तिरोहित-सा हो जाता है। जैसे आज के राष्ट्रीय नेताओं की पुकार है कि देशप्रेमी बन्धुओ! आप लोग मद्रासी और बंगाली होने के पहले भारतीय हैं, यह क्यों भूल जाते हैं ? उसीप्रकार मेरा कहना है कि 'मैं सेठ हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ' के कोलाहल में मैं आत्मा हूँ को हम क्यों भूल जाते हैं ? जैसे भारत देश की अखण्डता अक्षुण्ण रखने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक भारतीय में 'मैं भारतीय हूँ' - यह अनुभूति प्रबल होनी चाहिए। भारतीय एकता के लिए उक्त अनुभूति ही एकमात्र सच्चा उपाय है । उसीप्रकार 'मैं कौन हूँ' का सही उत्तर पाने के लिए मैं आत्मा हूँ की अनुभूति प्रबल हो, यह अति आवश्यक है। __ हाँ! तो स्त्री, पुत्र, मकान, रुपया, पैसा - यहाँ तक कि शरीर से भी भिन्न मैं तो एक चेतनतत्त्व आत्मा हूँ। आत्मा में उठनेवाले मोह-राग-द्वेष भाव भी क्षणस्थायी विकारीभाव होने से आत्मा की सीमा में नहीं आते तथा परलक्ष्यी ज्ञान का अल्पविकास भी परिपूर्ण ज्ञानस्वभावी आत्मा का अवबोध कराने में समर्थ नहीं है। यहाँ तक कि ज्ञान की पूर्ण विकसित अवस्था, अनादि नहीं होने से अनादिअनन्त पूर्ण एक ज्ञानस्वभावी आत्मा नहीं हो सकती है क्योंकि आत्मा तो एक द्रव्य है और यह तो आत्मा के ज्ञान गुण की पूर्ण विकसित एक पर्याय मात्र है।
SR No.008388
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size131 KB
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