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________________ कर्ताकर्माधिकार १४९ बस इसलिए यह आतमा निजभाव का कर्ता कहा। अन्य सब पुद्गलकरमकृत भाव का कर्ता नहीं।।८२।। यतो जीवपरिणामं निमित्तीकृत्य पुद्गला: कर्मत्वेन परिणमंति पुद्गलकर्म निमित्तीकृत्यजीवोऽपि परिणमतीति जीवपुद्गलपरिणामयोरितरेतरहेतुत्वोपन्यासेऽपिजीवपुद्गलयो: परस्परं व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोऽपिजीवपरिणामानां कर्तृकर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि परिणामः । ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाजीवः स्वभावस्य कर्ता कदाचित्स्यात्, मृत्तिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तुमशक्यत्वात्पुद्गलभावानां तु कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः ।।८०-८२ ।। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल (कार्माण वर्गणाएँ) कर्मरूप परिणमित होते हैं तथा जीव भी पौद्गलिककर्मों के निमित्त से परिणमन करता है। यद्यपि जीव कर्म के गुणों को नहीं करता और कर्म जीव के गुणों को नहीं करता; तथापि परस्पर निमित्त से दोनों के परिणाम होते हैं - ऐसा जानो। इसकारण आत्मा अपने भावों का कर्ता है, परन्तु पौद्गलिककर्मों के द्वारा किये गये समस्त भावों का कर्ता नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जीव के परिणामों को निमित्त करके पुद्गल कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गलकर्म को निमित्त करके जीव भी परिणमित होते हैं। - इसप्रकार जीव के परिणाम के और पुद्गल के परिणाम के परस्पर हेतुत्व का उल्लेख होने पर भी जीव और पुद्गल में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से जीव को पुद्गलपरिणामों के साथ और पुद्गलकर्म को जीवपरिणामों के साथ कर्ताकर्मपने की असिद्धि होने से मात्र निमित्त-नैमित्तिकभाव का निषेध न होने से, परस्पर निमित्तमात्र से ही दोनों के परिणाम होते हैं। इसलिए जिसप्रकार मिट्टी द्वारा घड़ा किया जाता है; उसीप्रकार अपने भाव से अपना भाव किया जाने के कारण जीव अपने भाव का कर्ता कदाचित् होता है; किन्तु जिसप्रकार मिट्टी से कपड़ा नहीं किया जा सकता; उसीप्रकार अपने भाव से परभाव का किया जाना अशक्य होने से जीव पुद्गलभावों का कर्ता तो कदापि नहीं हो सकता - यह निश्चय है।" यह आत्मा अनादिकाल से ही पर के कर्तृत्वादि की मान्यता से इसप्रकार ग्रस्त है कि अनेक युक्तियों और आगम के आधार पर बारम्बार समझाये जाने पर भी मिथ्यात्व के जोर से इसकी यह कर्तापने की बुद्धि टूटती नहीं है, छूटती नहीं है। जबतक यह आत्मा अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग के द्वारा, 'मैं पर का कर्ता-भोक्ता नहीं हूँ' - ऐसे निरन्तर चिन्तन के द्वारा उक्त कर्तृत्वबुद्धि को क्षीण नहीं करेगा; तबतक वह अनादिकालीन मिथ्या मान्यता छूटनेवाली नहीं है, टूटनेवाली नहीं है। यही कारण है कि आचार्यदेव उक्त मिथ्यामान्यता पर बारम्बार तीव्र प्रहार करते हैं और वस्तु के पारमार्थिक सत्य को हम सबके गले उतारना चाहते हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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