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________________ समयसार १४८ ही भासित होती है; जबतक कि भेदज्ञानज्योति करवत की भाँति निर्दयता से तत्काल भेद उत्पन्न करके प्रकाशित नहीं होती। जीवपुद्गलपरिणामयोरन्योऽन्यनिमित्तमात्रत्वमस्ति तथापि न तयोः कर्तृकर्मभाव इत्याह - जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पोग्गला परिणमंति। पोग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि।।८।। ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हं पि॥८१।। एदेण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण । पोग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।८२।। जीवपरिणामहेतुं कर्मत्वं पुदगलाः परिणमंति। पुद्गलकर्मनिमित्तं तथैव जीवोऽपि परिणमति ।।८।। नापि करोति कर्मगुणान् जीवः कर्म तथैव जीवगुणान् । अन्योन्यनिमित्तेन तु परिणामं जानीहि द्वयोरपि ।।८१।। एतेन कारणेन तु को आत्मा स्वकेन भावन । पुद्गलकर्मकृतानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ।।८२।। तात्पर्य यह है कि स्व-पर को जाननेवाला ज्ञानी जीव और स्व-पर को नहीं जाननेवाला पुद्गल दोनों ही अपने-अपने परिणामों में प्रवर्तित होते हैं; अपनी-अपनी परिणति के कर्ता-धर्ता हैं; उनमें परस्पर सदा ही रहनेवाला अत्यन्त भेद है। इसकारण उनमें व्याप्य-व्यापकभाव का किसी भी रूप में बनना संभव नहीं है; अत: उनमें परस्पर कर्ताकर्मभाव भी नहीं बन सकता तो भी अज्ञानीजीव अपने अज्ञान के कारण उनमें कर्ता-कर्मभाव मानते हैं। उनका यह अज्ञान तबतक ही रह सकता है, जबतक भेदज्ञानज्योति प्रगट नहीं होती। भेदज्ञानज्योति प्रगट होने पर उक्त अज्ञान का एकसमय भी रहना संभव नहीं है। _ विगत गाथाओं में अनेक युक्तियों से यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा और पुद्गल में परस्पर कर्ताकर्मभाव नहीं है। न तो आत्मा पौद्गलिकभावों का कर्ता है और न पुद्गल आत्मीयभावों का । इसी बात तो दृढ़ता प्रदान करने के लिए अब आगामी गाथाओं में यह बताते हैं कि जीव और पुद्गल के परिणामों में परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव होने पर भी कर्ताकर्मभाव नहीं है। मूल गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) जीव के परिणाम से जड़कर्म पुद्गल परिणमें। पुद्गल करम के निमित्त से यह आतमा भी परिणमें ।।८०॥ आतम करे ना कर्मगुण ना कर्म आतमगुण करे। पर परस्पर परिणमन में दोनों परस्पर निमित्त हैं।।८१।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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