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________________ कर्ताकर्माधिकार १४७ परिणमन (भावों) का कर्ता नहीं है। इसप्रकार इन चारों गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि पुद्गल पौद्गलिक भावों का कर्ता है (स्रग्धरा) ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन् व्याप्तृव्याप्यत्वमंत: कलयितुमसहौ नित्यमत्यंतभेदात् । अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत् विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः ।।५०।। और जीव अपने जाननेरूप ज्ञानभाव का कर्ता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने परिणमन का ही कर्ता-भोक्ता और स्वामी है। यहाँ एक बात और भी ध्यान रखने योग्य है कि यहाँ वर्णादि और रागादिरूप पर के कर्तृत्व के निषेध की बात है, उन्हें जानने के निषेध की बात नहीं है, बल्कि यहाँ तो यह कहा गया है कि उन्हें जाननेरूप ज्ञानक्रिया का कर्ता आत्मा है। उक्त चारों गाथाओं में लगभग एक ही बात कही गई है कि एक द्रव्य न तो दूसरे द्रव्य की पर्यायरूप परिणमित होता है, न दूसरे द्रव्य की पर्याय को ग्रहण करता है और न उसरूप उत्पन्न ही होता है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने भावों में ही परिणमित होता है। इसलिए एकद्रव्य का दूसरे द्रव्य की पर्यायों के साथ कर्ता-कर्मसंबंध होना संभव नहीं है। इसप्रकार इन गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि स्व-पर को जाननेवाला जीव भी पर का कर्ता-धर्ता नहीं है और स्व-पर को नहीं जाननेवाला पुद्गल भी पर का कर्ता-धर्ता नहीं है। इसीप्रकार का भाव आगामी कलश में भी व्यक्त किया गया है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (सवैया इकतीसा) निजपरपरिणति जानकार जीव यह, परपरिणति को करता कभी नहीं। निजपरपरिणति अजानकार पुद्गल, परपरिणति को करता कभी नहीं।। नित्य अत्यन्त भेद जीव-पुद्गल में, करता-करमभाव उनमें बने नहीं, ऐसो भेदज्ञान जबतक प्रगटे नहीं, ___ करता-करम की प्रवृत्ती मिटे नहीं ।।५०।। ज्ञानी तो अपनी और पर की परिणति को जानता हुआ प्रवर्तता है तथा पुद्गल अपनी और पर की परिणति को न जानता हआ प्रवर्तता है। इसप्रकार उक्त दोनों में परस्पर अत्यन्त भेद होने से वे दोनों परस्पर अंतरंग में व्याप्य-व्यापकभाव को प्राप्त होने में अत्यन्त असमर्थ हैं। जीव और पुद्गल के परस्पर कर्ता-कर्मभाव है' - ऐसी भ्रमबुद्धि अज्ञान के कारण तबतक
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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