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________________ १८२ प्रवचनसार का सार रहेंगे। जयपुर के प्रदेश जयपुर में और दिल्ली के प्रदेश दिल्ली में ही रहेंगे। जयपुर को दिल्ली की जगह और दिल्ली को जयपुर की जगह नहीं रख सकते । प्रदेश तो बदले नहीं जा सकते हैं; लेकिन अपनी मन की कल्पना से जयपुर का नाम दिल्ली रख दो और दिल्ली का नाम जयपुर रख दो; पर यह मन की कल्पनामात्र होगी, वास्तविक नहीं। हमने फैले हुए रूमाल को समेट लिया, समेटते समय भी उनका क्रम नहीं बदला है। जिस सूत्र (डोरा) के पास जो सूत्र था; वह उसी सूत्र के पास है, उसका क्रम नहीं बदला है। ऐसे ही संकोच अवस्था में आत्मा के प्रदेश नहीं बदलते; वे जिस क्रम में सुव्यवस्थित थे, अभी भी वे उसी क्रम में व्यवस्थित हैं। जिसप्रकार प्रदेशों का क्रम नहीं बदला जा सकता है; उसीप्रकार पर्यायों का क्रम भी नहीं बदला जा सकता। यह विस्तार - सामान्य है। और वह आयत - सामान्य है । यह तिर्यक् सामान्य है और वह उर्द्धता सामान्य है। प्रदेशों के क्रम को विस्तारक्रम कहते हैं और पर्यायों के क्रम को प्रवाहक्रम कहते हैं । प्रत्येक वस्तु द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावमय है। आचार्य समंतभद्र आप्तमीमांसा में घोषणा करते हैं - सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।। १५ ।। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व स्वरूपचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव से है। आत्मा द्रव्य है, अनंत गुण आत्मा के स्वभाव हैं। अनादि-अनंत पर्यायें द्रव्य का स्वकाल है और असंख्यप्रदेश द्रव्य का स्वक्षेत्र है। जैसे द्रव्य को नहीं भेदा जा सकता है; वैसे ही द्रव्य के क्षेत्र को भी नहीं भेदा जा सकता है। द्रव्य के क्षेत्र को भेदा नहीं जा सकता है का तात्पर्य यह है कि प्रदेश पलटे नहीं जा सकते हैं। जिसप्रकार उसके एक 88 ग्यारहवाँ प्रवचन १८३ गुण को भी कम नहीं किया जा सकता है, जिसप्रकार उसका स्वभाव नहीं पलटा जा सकता; उसीप्रकार उसका स्वकाल भी नहीं पलटा जा सकता है। अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक प्रत्येक गुण की एकएक पर्याय एक-एक क्षण में खचित है। द्रव्यपर्याय, गुणपर्याय इत्यादि जो भी पर्यायें हैं; वे सब सुनिश्चित हैं - यही क्रमबद्धपर्याय है। आचार्य कहते हैं कि जैसे प्रदेश नहीं पलटे जा सकते हैं, वैसे ही पर्यायें भी नहीं पलटी जा सकती है। इसका नाम है। क्रमबद्धपर्याय । इसप्रकार इस ९९वीं गाथा से क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि होती है। आगे १०२वीं गाथा में आचार्य ने पर्याय के जन्मक्षण और नाशक्षण को स्पष्ट किया है; जिसका उल्लेख गुरुदेव श्री बहुत करते थे । इसमें हमारी समस्या यह है कि जब हम काल की चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान कालद्रव्य की तरफ आकृष्ट होता है; लेकिन निश्चयकाल हमारे ख्याल में नहीं आता है। हमारा ध्यान मात्र व्यवहारकाल की तरफ ही चला जाता है; लेकिन यहाँ जिस काल की चर्चा चल रही है; वह हमारा काल है; इसलिए इसे स्वकाल कहा है। यह पर्यायों की क्रमबद्धता है । समयसार परमागम में आचार्य ने यह भावना भाई है कि न द्रव्येन खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि । तात्पर्य यह है कि मैं चारों ओर से अखण्ड हूँ और 1 अखण्ड रहूँ । सिक्खों में दो दल हैं- अकाली दल एवं निरहंकारी दल । अकाली दल से उनका तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा काल से खण्डित नहीं होता है। ऐसा माननेवाले अकाली दल में हैं। वे कहते हैं कि धर्म पर काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। लोग यह कहते हैं कि अब समय बहुत बदल गया है, अब पुराना
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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