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________________ १८० प्रवचनसार का सार क्योंकि उन पर्यायों के साथ उनका कोई रागात्मक संबंध ही नहीं है। संबंध दो प्रकार के होते हैं- एक पर को अपना माननेरूप संबंध एवं दूसरा पर से राग करनेरूप संबंध- दोनों प्रकार के संबंध जब पूर्णरूप से टूटे; तभी केवलज्ञान प्रगट होता है। जब पर को अपना माननेरूप मान्यता टूटती है, राग-द्वेष का परिणाम खत्म होता है; तब पूर्व भव के अनंत माँ-बाप दिखाई दे तो भी कुछ हानि नहीं है। यदि केवलज्ञान के पूर्व पूर्व भव के अनंत माँ-बाप दिखाई दिए समस्या उत्पन्न हो सकती है। सम्यग्दर्शन के बाद भी यदि ऐसा हो तो भी गड़बड़ी खड़ी हो सकती है। सम्यग्दर्शन के पूर्व यदि सर्वज्ञता होगी तो अपनत्व का चक्कर खड़ा होगा एवं सम्यग्दर्शन के बाद यदि सर्वज्ञता होगी तो राग-द्वेष की समस्या उत्पन्न होगी। अत: जैनदर्शन में ऐसी अद्भुत वस्तुव्यवस्था है कि जिसमें यह निहित है कि सर्वज्ञता तभी प्रगट होगी; जब एक समय पूर्व वीतरागी हो जाए। उससे पूर्व सर्वज्ञता प्रगट नहीं हो सकती है। इस गाथा में प्रदेशों के क्रम के माध्यम से पर्यायों का क्रम समझाया गया है; क्योंकि वर्तमान में विद्यमान होने से प्रदेशक्रम की बात आसानी से समझी जा सकती है; पर पर्यायों की क्रमबद्धता को समझना आसान नहीं है; क्योंकि भूत की पर्यायें नष्ट हो गई हैं और भविष्य की पर्यायें अभी प्रगट नहीं हुई हैं। ये तीनों काल की पर्यायें केवलज्ञान में विद्यमान है, केवलज्ञानगम्य हैं; इसलिए वे हमारे लिए सूक्ष्म हैं; परन्तु प्रदेशवाली पर्याय अर्थात् असंख्य प्रदेश वर्तमान काल में मौजूद हैं; उन्हें आसानी से जाना जा सकता है; इसलिए वे हमारे लिए स्थूल हैं। एक रूमाल में एक हजार सूत्र (डोरे) हैं; जो दाएँ से बाएँ गुँथे हुए हैं। क्या एक नंबर के सूत्र (डोरा) को हजार नम्बर के सूत्र तक ला सकते हैं? यदि उसे वहाँ लाएँगे तो रूमाल फट जाएगा । इसीप्रकार द्रव्य के एक प्रदेश को उसके स्थान पर से हटाकर दूसरे 87 ग्यारहवाँ प्रवचन १८१ स्थान पर लेंगे तो उस द्रव्य के ही दो टुकड़े हो जाएँगे । द्रव्य में जो असंख्यात प्रदेश खचित हैं; वे जिस स्थान पर हैं, उन्हें उसी स्थान पर रखना अनिवार्य है यह सिद्धान्त है। रूमाल को घड़ी करके रखते हैं तो उसे पुनः फैला भी सकते हैं। ऐसे ही भगवान आत्मा फैलता भी है एवं सिकुड़ता भी है। जब यह आत्मा संकुचित होता है तो सबसे छोटी अवगाहना में रह जाता है और जब विस्तार को प्राप्त होता है तो लोकालोक में फैल जाता है। लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर इसके एक-एक प्रदेश छा जाते हैं। जिसप्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख, वीर्य इसप्रकार गुणों के नाम हैं; वैसे प्रदेशों के ऐसे कोई नाम नहीं हैं; लेकिन फिर भी हम उनमें भेद कर सकते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि ये पूर्व दिशावाले प्रदेश हैं; ये उत्तरवाले प्रदेश हैं और इनका फैलाव पश्चिम की तरफ है। उनमें एक सुनिश्चित व्यवस्थित क्रम है; परंतु शास्त्रों में उनका कोई विशिष्ट नाम नहीं दिया है; क्योंकि उससे कोई प्रयोजन भी नहीं है। गुणों के परिणमन में प्रयोजन है एक जानने का काम करता है, एक देखने का काम करता है, एक श्रद्धा, एक आनंद का काम करता है। इसप्रकार भिन्न-भिन्न गुणों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं; इसलिए वहाँ नाम बताना जरूरी है; लेकिन प्रदेशों के इसप्रकार अलग-अलग नाम नहीं हैं। और उनके नाम बताने की जरूरत भी नहीं है। अब, वह जो आत्मा के असंख्यातलोक प्रमाण प्रदेश हैं: केवली समुद्घात के समय जो लोकालोक के एक-एक प्रदेश पर एक-एक अवस्थित हो जाते हैं; क्या उनके क्रम को बदला जा सकता है ? जब आत्मा लोकाकाश में फैलेगा तो आत्मा के मध्य के आठ प्रदेश और सुमेरु पर्वत के मध्य के आठ प्रदेश अथवा परमाणु उन दोनों का एक ही स्थान होगा। लोकाकाश के प्रदेश नहीं बदले जा सकते हैं, वे जहाँ हैं, वहीं
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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