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________________ प्रवचनसार का सार १८५ १८४ धर्म काम नहीं आएगा, अब धर्म के नियम बदलने पड़ेंगे। काल का प्रभाव सब पर होता है। काल सभी को खा जाता है; परन्तु अकाली दलवाले ऐसा नहीं मानते । वे कहते हैं कि जिसको काल नहीं खाता है, जो काल से अप्रभावी है; धर्म वह है। अग्नि हजार वर्ष पूर्व भी गर्म होती थी, आज भी गर्म है तथा अनंतकाल बाद भी गर्म ही रहेगी; क्योंकि उस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसलिए वे कहते हैं कि हम उस धर्म के उपासक हैं; जिसपर काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जो परिस्थितियों से बदल जाय, वह धर्म नहीं है। पहले अहिंसा धर्म था तो क्या आज हिंसा धर्म हो जाएगा ? पहले अनेकांत धर्म था तो क्या आज एकान्त धर्म हो जाएगा? निरहंकारी वे हैं, जो अहं नहीं करते हैं अर्थात् स्त्री-पुत्र-कुटुम्बसम्पत्ति ये सब मेरे हैं - इसप्रकार का अहं (घमण्ड) नहीं करते हैं। ___घमण्ड तो अहंकार का बहुत स्थूल अर्थ है। जैनदर्शन में भी ऐसा ही है कि 'मैं देह हूँ' - ऐसी अहंबुद्धि ही अहंकार है, यह अहंबुद्धि ही मिथ्यात्व है। पर में एकत्व करना ही अहं करना है। जिन्होंने पर में से एकत्व तोड़ दिया है, जिन्होंने एकमात्र भगवान आत्मा में एकत्व स्थापित किया है; वे निरहंकारी हैं। यदि उक्त व्याख्या को सही माने तो हम भी अकाली हैं, निरहंकारी हैं। वस्तु के स्वरूप पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात् 'न कालेन खण्डयामि' इसलिए हम अकाली हैं। इसप्रकार हम दोनों ही दलवाले हैं, हम अकाली भी हैं और निरहंकारी भी हैं। प्रतिसमय परिवर्तन होना ये मेरा धर्म है, मेरा गुण है, मेरा स्वभाव है। यह मेरी पर्याय नहीं है; क्योंकि पर्याय तो उसका नाम है, जो चली जाती है; परन्तु यह मेरा स्वभाव नाशवान नहीं है। नाशवान तो वह है, जिसका उत्पाद हुआ था; लेकिन उत्पादकत्व शक्ति (उत्पाद होना) का नाश नहीं हुआ है। इसे समझने से बहुत बड़ा ग्यारहवाँ प्रवचन आश्वासन/सम्बल मिलता है। किसी माता का पुत्र उत्पन्न होते ही मर गया तो वह माता बहुत उदास हो जाती है। तब उस माता को आश्वासन देते हुए सभी समझाते हैं कि - 'हो गया सो हो गया। अभी तू वृद्ध थोड़े ही हो गई।' इसका आशय यह है कि अभी इस माता की उत्पादन क्षमता थोड़े ही समाप्त हो गई। अभी यह एवं इसका पति जीवित है तो दूसरा पुत्र उत्पन्न हो जाएगा, चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसप्रकार लोग उस माता को आश्वासन देते हैं। ऐसे ही आचार्य यह कह रहे हैं कि जिसका उत्पाद हुआ है, उसका व्यय हुआ है; परंतु उत्पादस्वभाव का व्यय थोड़े ही हुआ है, वह तो प्रतिसमय निरंतर चल रहा है। व्यय तो उसका हुआ है, जिसका उत्पाद हुआ था। राग का उत्पाद हुआ था एवं अब उसका ही व्यय भी हुआ; परंतु मेरी उत्पाद-व्यय शक्ति थोड़ी चली गई, वह तो अभी भी कायम है। उत्पाद-व्यय की ध्रुवता ही ध्रौव्य है। यह भगवान आत्मा कभी नहीं पलटता है - ऐसी नित्यता भी भगवान आत्मा में है। एवं यह भगवान आत्मा सदा पलटता है - ऐसी अनित्यता भी इसमें नित्य है। यदि वह अनित्यता सर्वथा अनित्य ही होती तो वह समाप्त हो गई होती और हम मात्र नित्य ही रह जाते; परंतु अनित्यता अनादिकाल से है एवं अनंतकाल तक वैसी की वैसी रहेगी, कभी समाप्त नहीं होगी। वस्तु के स्वभाव में से अनित्यत्व धर्म नहीं निकल सकता है। ___गुरुदेवश्री इसके मर्म को जिसप्रकार समझाते हैं, वह बड़ा ही मार्मिक है। वे कहते हैं - 'पर्यायें निकल गईं, परंतु पर्याय प्रतिसमय द्रव्य में से निकले - ऐसा द्रव्य का स्वभाव तो नहीं निकल गया।' हम इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं। हमारी ज्ञानपर्याय एकसमय में भगवान आत्मा को जान सकती है। सैनी पंचेन्द्रिय अपनी आत्मा का अनुभव कर सकता है। अभी भी हममें प्रतिसमय ऐसी ज्ञानपर्याय का उत्पाद हो रहा है, जिससे हम भगवान आत्मा को जानने में समर्थ हैं। 89
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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