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________________ ९० भी ज्ञान के ही गीत गाये जा रहे हैं। अब इस ५३वीं गाथा से सुखाधिकार प्रारम्भ करते हैं। इसमें भी ज्ञान की ही चर्चा मुख्यरूप से है - प्रवचनसार का सार अत्थि अमुत्त मुत्तं अदिंदियं इंदियं च अत्थेसु । णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ॥ ५३ ॥ ( हरिगीत ) मूर्त और अमूर्त इन्द्रिय अर अतीन्द्रिय ज्ञान - सुख । इनमें अमूर्त अतीन्द्रियी ही ज्ञान - सुख उपादेय हैं ।। ५३ ।। पदार्थों संबंधी ज्ञान और सुख अमूर्त, मूर्त, अतीन्द्रिय और इन्द्रियरूप होता है। उनमें जो प्रधान है, वह उपादेयरूप जानना चाहिए। ज्ञान के समान सुख भी दो-दो प्रकार का होता है - इन्द्रियसुख व अतीन्द्रियसुख, मूर्तसुख व अमूर्तसुख । आत्मा से उत्पन्न होनेवाले सुख को अमूर्तसुख कहा जाता है और पंचेन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले सुख को मूर्तसुख कहा जाता है। विषयों की दृष्टि से उसे मूर्त नाम दे दिया है और इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करते हैं; इसलिए उसे इन्द्रिय नाम दे दिया है। जो इन्द्रिय के बिना सीधे आत्मा से ग्रहण करता है; वही अतीन्द्रियज्ञान व अतीन्द्रियसुख है। जिसप्रकार ज्ञान मूर्त व अमूर्त, इन्द्रिय व अतीन्द्रिय होता है; उसीप्रकार सुख भी मूर्त व अमूर्त तथा इन्द्रिय व अतीन्द्रिय होता है। इन्द्रियज्ञान के साथ में इन्द्रियसुख की प्राप्ति अनिवार्य है तथा अतीन्द्रियज्ञान के साथ में अतीन्द्रियसुख की प्राप्ति अनिवार्य है। चारों अनुयोगों के शास्त्रों में पाँचों इन्द्रिय के विषयों के सुख का मजबूती से निषेध किया गया है। पाँचों इन्द्रियों के विषयभोगों से उत्पन्न सुख का निषेध जैनेतर शास्त्रों में भी किया है। अब, आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियज्ञान इन्द्रियसुख का साधनभूत है। इसलिए जब इन्द्रियसुख हेय है तो इन्द्रियज्ञान भी हेय ही हो गया। 42 पाँचवाँ प्रवचन ये इन्द्रियसुख की सत्ता का निषेध कहीं भी नहीं है । परन्तु वास्तविक सुख नहीं हैं, नाममात्र का सुख हैं । इसलिए ऐसा कहा जाता है कि इन्द्रियसुख; सुख नहीं है, दुःख ही है। इसीप्रकार यह भी कहा जाता है कि इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है । ९१ इसमें तो कोई गड़बड़ी नहीं है; लेकिन गड़बड़ी तब होती है कि जब इन्द्रियसुख सुख नहीं है, दुःख ही है ऐसा कहकर हम जगत में उसकी सत्ता से ही इन्कार करने लगते हैं। इन्द्रियसुख नामक जो वस्तु है, उसके अस्तित्व से इन्कार नहीं है; किन्तु इन्द्रियसुख में सुखत्व का निषेध है। रोटी बनानेवाला भी पंडित होता है और शास्त्रों का जानकार भी पंडित होता है। जब हम कहते हैं कि रोटी बनानेवाला पंडित नहीं है तो इसमें उसकी सत्ता से इन्कार नहीं किया है, अपितु उसकी विद्वत्ता से इन्कार किया है । समाज उसे भी पण्डित नाम से जानती है तो जाने; उससे इन्कार नहीं है, पर उसके पाण्डित्य से इन्कार है। ऐसे ही इन्द्रियसुख सुख नहीं है; इसमें इन्द्रियसुख की सत्ता से इन्कार नहीं है; अपितु उसके वास्तविक सुखपने से इन्कार है । ऐसे ही इन्द्रियज्ञान; ज्ञान नहीं है; इसमें इन्द्रियज्ञान की सत्ता से इन्कार नहीं था। यहाँ वह इन्द्रियज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं है अथवा सम्यग्ज्ञान नहीं है, आत्मा का कल्याण करनेवाला नहीं है उक्त कथन इस अर्थ में ही है। परंतु हमने इन्द्रियज्ञान, ज्ञान नहीं है; वह तो ज्ञेय है - ऐसा कहकर उसके ज्ञानत्व का ही निषेध किया; परंतु यहाँ ऐसा अर्थ नहीं है। यद्यपि इन्द्रियज्ञान में जानने की क्रिया हो रही है; परंतु वह हमारे काम की नहीं है। यहाँ जानने की क्रिया का निषेध नहीं है; परंतु हम इन्द्रियज्ञान में जानने की क्रिया का ही निषेध करने लग गए हैं। यही हमारी भूल है।
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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