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________________ ८८ प्रवचनसार का सार और एक द्रव्य में जो अनेक गुण हैं, उनमें विद्यमान पृथकता और पृथकता को भी जानते हैं; साथ में पृथकता और अपृथकता अपेक्षाओं को भी जानते हैं। यह भी बहुत मार्मिक प्रकरण है। यहाँ कई लोग कहते हैं कि भेद तो व्यवहार है, इसलिए भेद तो है ही नहीं। अरे भाई ! भेद व्यवहार नहीं है, भेद को जानना व्यवहार है। भेद के लक्ष्य से आत्मा की सिद्धि नहीं होती है। इसलिए भेद को जानना व्यवहार है - ऐसा कहा है। भेद तो वस्तु के स्वरूप में ही पड़ा है। दो द्रव्य अलग-अलग हैं। एक द्रव्य के दो गुण सर्वथा अलगअलग नहीं हैं तथा एक द्रव्य की दो पर्यायें भी सर्वथा पृथक्-पृथक् नहीं हैं। एक द्रव्य के गुणों और पर्यायों में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है; परन्तु भेद के जानने पर विकल्प की उत्पत्ति होती है । इसलिए अनुभव के काल में भेद का निषेध है। सर्वज्ञ भगवान तो भेद और अभेद दोनों को ही एकसाथ जानते हैं। जिसने कर्मों को छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत और वर्तमान समस्त विश्व को एक ही साथ जानता हुआ मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता; इसलिए कहा है कि जिसके समस्त ज्ञेयाकारों को अत्यंत विकसित ज्ञप्ति के विस्तार से स्वयं पी गया है - ऐसे तीनों लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है। निश्चयनय अभेद को जानता है, व्यवहारनय भेद को जानता है और केवलज्ञान प्रमाणज्ञान है; अतः दोनों को जानता है । केवलज्ञान समस्त द्रव्यों के समस्त विस्तार को जानते हुए अत्यंत विकसित है अर्थात् उसने उन्हें आत्मसात कर लिया है। अर्थात् उनके ज्ञान में सब झलक रहा है। वह उन्हें पी गया है अर्थात् अपने अन्दर में ही तृप्त है। कोई भी वस्तु उसके ज्ञान के बाहर नहीं है। सहजज्ञान में ज्ञात हैं, उसी ज्ञान के वे ज्ञाता 41 पाँचवाँ प्रवचन - है अर्थात् ज्ञान क्रिया के ही वे कर्त्ता हैं ऐसा कहा जाता है। कर्त्ता तो हैं, पर प्रयत्नपूर्वक करते हैं- ऐसा कुछ नहीं है। इसप्रकार यहाँ केवलज्ञान की महिमा बताकर ज्ञानाधिकार का समापन किया है। अब सुखाधिकार का आरंभ करते हैं। सुखाधिकार में भी ज्ञान की ही महिमा गाई गई है। अधिकार के अंत में सांसारिक सुख का वर्णन किया गया है । सांसारिक सुख; सुख नहीं है, दुःख ही है। जिसे अतीन्द्रिय - ज्ञान है, उसे ही अतीन्द्रियसुख उत्पन्न होता है । अतीन्द्रियसुख को प्राप्त करने के लिए किसी पृथक् पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं है। आजकल माल बेचने की एक तकनीक चली है कि जो व्यक्ति एक मोक्षमार्गप्रकाशक खरीदेगा; उसे उसके साथ दूसरा मोक्षमार्गप्रकाशक मुफ्त में दिया जाएगा। अमरीका में ऐसे बोर्ड लगे रहते हैं कि 'वन बाय 'वन गेट फ्री' एक खरीदो और दूसरा मुफ्त में पाओ । यदि कोई कहे कि एक की कीमत लेकर दो वस्तुएँ देने के स्थान पर आधी कीमत कर देना ही ठीक है। उससे कहते हैं कि यदि हम आधी कीमत करके बेचे तो एक मोक्षमार्गप्रकाशक ही बिकेगा। हमें बिक्री दुगुना करना है, आधी नहीं। दोनों के बराबर एक का मूल्य रखकर फिर एक के साथ एक फ्री करते हैं। तो लेनेवाला दो ले जाता है। वहाँ विटामिन की दवाईयों में ऐसा बहुत होता है। १०० गोलियों की एक शीशी खरीदो तो दूसरी शीशी फ्री में दी जाती है। ऐसे ही यहाँ आचार्य कह रहे हैं कि केवलज्ञान खरीदो तो अनंतसुख मुफ्त में मिलेगा । केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें जो आत्मोन्मुखी होने का पुरुषार्थ करना पड़ेगा, उसी पुरुषार्थ से स्वयमेव अनंतसुख, अनंतवीर्य और अनंतदर्शन प्राप्त होगा। यह सारी महिमा ज्ञान की है। यहाँ मुख्य सक्रिय ज्ञानगुण ही है। यही कारण है कि सुखाधिकार में
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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