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________________ १२ प्रवचनसार का सार जो न्यायशास्त्र नहीं पढ़ते हैं; वे ही ऐसे भूलें करते हैं। एक व्यक्ति यहाँ से जा रहा है, उसे कोई चमकदार पदार्थ नीचे पड़ा हुआ दिखा। झुककर देखा तो काँच का टुकड़ा था, उसने हीरा समझा था और निकला काँच का टुकड़ा । इसलिए उसने उसे तुरंत फेंक दिया। पीछेवाले ने पूछा 'क्या है ?' वह बोला - 'कुछ नहीं।' कुछ नहीं - ऐसा कैसे हो सकता है ? वह झुका था तो कुछ न कुछ तो होगा ही। अरे भाई! यहाँ कुछ नहीं है अर्थात् कोई काम की चीज नहीं है। ___'कुछ नहीं।' - ऐसा कहकर यहाँ उसकी सत्ता से इन्कार नहीं किया है; अपितु उसकी प्रयोजनमतता से इन्कार किया है। ऐसे ही 'इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं' इसमें इन्द्रियज्ञान की सत्ता से इन्कार करना अन्याय है, गलत है। इन्द्रियज्ञान प्रयोजनभूत नहीं है - इसका नाम ही इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है - यदि ऐसा कहते हैं तो कोई समस्या नहीं है। इसे ही इन्द्रियज्ञान हेय है - ऐसा कहा जाता है। 'इन्द्रियज्ञान ज्ञान नहीं है' यदि यह सर्वथा सत्य हो तो वह हेय है - ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? वह छोड़ने योग्य है - इसका अर्थ यह है कि उसकी सत्ता तो है; लेकिन वह किसी काम का नहीं है। एक छंद आता है - परखा माणिक मोतियाँ, परखा हेम कपूर । यदि आतम जाना नहीं, जो जाना सब धूल। यदि आत्मा को नहीं परखा और किसी को भी परखा, तो कुछ परखा ही नहीं है, जाना ही नहीं है; वह जानना बेकार है; क्योंकि वह किसी प्रयोजन का नहीं है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियज्ञानवाले को इन्द्रियसुख की तथा अतीन्द्रियज्ञानवाले को अतीन्द्रियसुख की प्राप्ति होती है। जिस शुद्धोपयोग के फल में केवलज्ञान की प्राप्ति होती है; उसी पाँचवाँ प्रवचन शुद्धोपयोग के फल में अतीन्द्रिय आनन्द की भी प्राप्ति होती है। जादं सयं समंतं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगतियं भणिदं ।।५९।। (हरिगीत) स्वयं से सर्वांग से सर्वार्थग्राही मलरहित । अवग्रहादि विरहित ज्ञान ही सुख कहा जिनवरदेव ने ।।५९।। स्वयं से उत्पन्न, समंत, अनन्त पदार्थों में विस्तृत, निर्मल और अवग्रहादि से रहित ज्ञान ऐकान्तिक सुख है - ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है। ____ यहाँ ऐकान्तिक से तात्पर्य वास्तविक से है। ज्ञानाधिकार समाप्त होने के बाद सुखाधिकार की ७-८ गाथाएँ हो जाने पर भी आचार्य यहाँ ज्ञान की ही महिमा गा रहे हैं। ___अवग्रहादिक से रहित अतीन्द्रिय ज्ञान के साथ में जो सुख उत्पन्न हुआ है; वह सुख एकान्तिक सुख है अर्थात् वास्तविक सुख है। ____ सिद्धों के अतीन्द्रियसुख की अपेक्षा इन्द्रियसुख दुःख ही है। अत: संसारीजीव दु:खी ही हैं। पुण्य के उदय से प्राप्त होनेवाली अनुकूलता को सुख मानो तो हम संसारीजीवों को भी सुखी कह सकते हैं। सर्वज्ञ का ज्ञान अवग्रहादिक से रहित है। जो स्वयं पैदा हुआ है अर्थात् इन्द्रियादिक की सहायता से उत्पन्न नहीं हुआ है, गुरु-पुस्तकादिक से उत्पन्न नहीं हुआ है, जिसमें पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है - ऐसा ज्ञान अतीन्द्रियज्ञान है। जिसप्रकार आँख पीछे का नहीं देख सकती है - केवलज्ञान उसप्रकार नहीं है। केवलज्ञान में तो सर्वांग प्रदेशों से एक-सा दिखता है। केवलज्ञानी अरहंत भगवान के आँख और कान अपने से बढ़िया होते हैं, वज्र की चोट से भी खराब नहीं होते। कहने का आशय यह है कि उनकी आँखें तो बढ़िया हैं; लेकिन वे आँखों से देखते ही नहीं हैं। वे चारों तरफ से आत्मप्रदेशों से ही देखते हैं। उनका ज्ञान अवग्रहादिक 43
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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