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________________ प्रवचनसार कासार इसप्रकार है जीवो हि तावत् क्रमनियमितात्परिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः। __ इसमें तो यह साफ-साफ लिखा है कि जीव; अजीव नहीं है, जीव ही है। यह भेदविज्ञान की गाथा है और जीव का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिख दिया कि जीव अपने क्रमनियमित परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है। यहाँ 'क्रमनियमित आत्मपरिणामों से उत्पन्न होता हुआ।' इतना ही वाक्य क्रमबद्धपर्याय को सिद्ध करता है। क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि करणानुयोग से होती है और सर्वज्ञसिद्धि न्यायशास्त्रों से सिद्ध होती है अथवा प्रवचनसार के इस ज्ञानाधिकार से सिद्ध होती है। इस ज्ञानाधिकार का समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने एक कलश लिखा है; जो बहुत ही मार्मिक है एवं संपूर्ण ज्ञानाधिकार को अपने में समेटनेवाला है - (स्रग्धरा) जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं । मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निक्षूनकर्मा ।। तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपातं । ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः।।४।। (मनहरण कवित्त ) जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब। अनंत सुख वीर्यदर्शज्ञान धारी आतमा ।। भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब। द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धात्मा। मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं। सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ।। पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये। पाँचवाँ प्रवचन ८७ सदा मुक्त रहें अरिहंत परमातमा ।।४।। जिसने कर्मों का नाश किया है - ऐसा आत्मा भूत, भावी और वर्तमान संपूर्ण विश्व को युगपत जानता है; तथापि मोह का अभाव होने के कारण पररूप से अर्थात् ज्ञेयरूप से परिणमित नहीं होता है। उसके कारण वह ज्ञानमूर्ति आत्मा वेग से विकास को प्राप्त ज्ञप्तिविस्तार से उनके संपूर्ण ज्ञेयाकार को पी गया है - ऐसे तीनलोक के पदार्थ समूह को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करते हुए मुक्त रहता है। यह स्रग्धरा छन्द है। स्वग् अर्थात् माला और धरा अर्थात् धारण करनेवाली। हाथ में माला लेकर चलनेवाली मालिन जैसे मटक-मटक कर चलती है; वैसे ही यह स्त्रग्धरा छन्द चलता है। भूत, भावि और भवत् अर्थात् वर्तमान - इसप्रकार इसमें तीनों काल की पर्यायें समा गई हैं। विश्व अर्थात् छह द्रव्यों का समूह । सर्वज्ञता छहद्रव्यों की भूतकालीन, वर्तमानकालीन व भविष्यकालीन सभी पर्यायों को युगपद् अर्थात् एक साथ जानती है। जितने द्रव्य हैं, उन सबकी सब पर्यायों को भी सर्वज्ञ का ज्ञान जानता है। हम जितने लोगों को जानते-पहिचानते हैं, उतने लोगों से मोह बढ़ जाता है, झगड़ा अथवा दोस्ती हो जाती है। इसका अर्थ यह हो गया कि जो जितना अधिक जानते हैं, उनके उतने अधिक शत्रु व मित्र होंगे। जिसका जितना परिचय का क्षेत्र होता है, उस परिचय के क्षेत्र में ही उसके शत्रु व मित्र होते हैं; परंतु यह आत्मा मोहनीय कर्म के अभाव के कारण एवं घातिया कर्मों को जिसने नष्ट कर दिया है - ऐसा होने के कारण वह मोह के अभावरूप से ऐसा परिणमित हुआ है कि वह संपूर्ण लोकालोक में जितने भी पदार्थ है एवं उनकी पर्यायें हैं; उनको पृथक एवं अपृथकरूप से जानता है; पर किसी में भी एकत्व नहीं करता और किसी से भी राग-द्वेष नहीं करता। सर्वज्ञ भगवान दो द्रव्यों में विद्यमान पृथकता को भी जानते हैं
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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