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________________ प्रवचनसार का सार ज्ञान एक समय में ही संपूर्ण लोकालोक को जानता है - ऐसी श्रद्धा नहीं होगी, तबतक सर्वज्ञता पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होगी। इसी अर्थ को आचार्य इस गाथा के माध्यम से दृढ़ करते हैं - ण विपरिणमदिण गेण्हदि उप्पजदिणेव तेसुअढेसु। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ।।५२।। (हरिगीत ) सवार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो। बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो ।।५२।। (केवली भगवान) उन पदार्थों को जानते हुए भी उसरूप परिणमित नहीं होते, उन्हें ग्रहण नहीं करते तथा उनरूप से उत्पन्न नहीं होते; इसलिए अबंधक कहे गए हैं। आत्मा पर-पदार्थों को जानते हुए न तो उन्हें परिणमित कराता है, न ही उनरूप परिणमित होता है और न उन्हें ग्रहण करता है, न उनरूप से उत्पन्न होता है; इसप्रकार परपदार्थों में कोई भी हस्तक्षेप किए बिना जानना होता है। ज्ञान का स्वभाव इसप्रकार से जानने का है। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य पर पड़नेवाले प्रभाव को समझाने के उद्देश्य से एक विद्वान ने यह उदाहरण दिया कि १० किलो हलुआ यदि ६०० आदमी देखते हुए निकल जाए तो हलुआ पावभर कम हो जाएगा। उन्होंने कभी प्रयोग करके देखा होगा, तब वह बात सच्ची निकल गई होगी; क्योंकि ताजा हलुआ यदि रखो तो उसमें पानी रहता है जो भाप बनकर उड़ जाता है। गर्म से ठण्डा होते-होते पावभर पानी कम होगा ही। उनकी बात को काटते हुए दूसरे विद्वान ने कहा कि चक्षु तो अप्राप्यकारी है; अत: चक्षु ने उसे ग्रहण कर लिया - यह संभव नहीं है। इस पर दोनों में वाद-विवाद आरंभ हो गया। उस वाद-विवाद का समय भी तय हो गया कि सुबह दो घण्टे और दोपहर दो घण्टे - यह वाद-विवाद चलेगा; एक अध्यक्ष बनेगा - पाँचवाँ प्रवचन इसप्रकार सब तय हो गया। दोनों ही तरफ ५-७ दिन तक 'एवं चेत् एवं स्यात्' चलता रहा, तर्क-युक्तियाँ और प्रमाण चलते रहे। अंतत: प्रथम विद्वान कमजोर पड़ने लगे। तब दूसरे विद्वान ने कहा कि - 'आप न्यायाचार्य हैं। यदि आपके मुँह से वैसा गलत वाक्य निकल ही गया था तो आप उसके साथ एक वाक्य ऐसा भी जोड़ देते कि - ‘इति केचित् ।' अर्थात् ऐसा कुछ लोग कहते हैं 'तदप्यसत् ।' वह भी सत्य नहीं है। जो काम इतने से निपटता था; उसके लिए तुमने सात दिन लगा दिए।' न्याय ग्रन्थों में जब पूर्वपक्ष रखा जाता है, तब 'इति केचित्' - ऐसा कुछ लोग कहते हैं - ऐसा कहा जाता है। जब उनका खण्डन करना प्रारम्भ करते हैं, तब सबसे पहले 'तदप्यसत्' यह सत्य नहीं है - ऐसा कहा जाता है। कहने का आशय यह है कि इतने दिग्गज न्यायशास्त्री निरर्थक विषयों पर वाद-विवाद तो करते रहे। लेकिन सर्वज्ञता के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहे । हम उनसे पूछते हैं कि आप जिंदगीभर सर्वज्ञता पढ़ाते रहे और अब सर्वज्ञता पर दायें-बायें हो रहे हैं। आपने लोगों को करणानुयोग पढ़ाया और बताया कि ६ महिने ८ समय में ६०८ जीव मोक्ष जाएँगे। इसप्रकार सब निश्चित है। - ऐसा आपने ही सबको बताया। आशय यह है कि पढ़ानेवालों को भी यह समझ में क्यों नहीं आता कि करणानुयोग में हरतरह के जीवों की निश्चित संख्या लिखी हुई है। यह संख्या त्रिकाल की है। ऐसा नहीं है कि यह संख्या आज की जनगणना के अनुसार हो और १० साल बाद की जनगणना में संख्या बढ़ जाएगी। यह संख्या हमेशा इतनी ही रहेगी, तब क्या यह सब यह घोषित नहीं करता है कि सब निश्चित है और इसे केवली के अलावा और कौन जान सकता है ? इसप्रकार यह बात सर्वज्ञता व क्रमबद्ध को भी सिद्ध करती है। समयसार में क्रमबद्धपर्याय संबंधी एक पंक्ति मिलती है; जो 39
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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