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________________ प्रवचनसार का सार जाएँगे - ऐसा कुछ भी बोलो। तीन भव पश्चात् यदि मोक्ष नहीं मिला तो उस बतानेवाले को कहाँ ढूँढेगे ? अगले भवों की घोषणा करने में तो कोई हानि है ही नहीं। इस भव की इसप्रकार की बातें कि तुम्हारा बुढ़ापा बहुत बढ़िया कटेगा; कहने में भी कोई हानि नहीं है; क्योंकि जब उसका बुढ़ापा आएगा, तब हम होंगे या नहीं अथवा कहाँ होंगे ? उसका बुढ़ापा आएगा भी या नहीं या वह बुढ़ापा आने के पहले ही मर जाएगा, तब भी वह हमें पूछने नहीं आ पाएगा। इसप्रकार भविष्य की घोषणायें करने में भी किसी तरह का खतरा नहीं है। भूतकाल की सब बातें बताने पर यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि यदि तुमने इनकी भूतकाल की बातें बता दी तो मेरी भी बता दो; तब वह कहता है कि नहीं, नहीं; मैं आपके बारे में तो नहीं जानता । मुझे अध्ययन करना पड़ेगा; तभी बता पाऊँगा। वह ऐसा इसलिए कहता है; क्योंकि इस नूतन व्यक्ति की इसके पास कोई जानकारी ही नहीं है। ___ तब वह कहता है आपने जैसे इनका हाथ देखा है, वैसे ही मेरा हाथ भी देख लो; पर इसका उसके पास कोई उत्तर नहीं होता। इसलिए केवलज्ञान का स्वरूप अवश्य समझना चाहिए। यदि यह ज्ञान सबको नहीं जानता है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि वह एक को भी नहीं जानता है। यदि सबको नहीं जानता है तो जानता ही नहीं है - ऐसा मानना पड़ेगा। इस गाथा में आचार्य सर्वज्ञता को और विशेष स्पष्ट करते हैं - उप्पजदि जदिणाणं कमसो अट्टे पडुच्च णाणिस्स। तंणेव हवदि णिच्चं ण खाइगं णेव सव्वगर्द।।५०।। (हरिगीत) पदार्थ का अवलम्ब ले जो ज्ञान क्रमश: जानता। वह सर्वगत अर नित्य क्षायिक कभी हो सकता नहीं ।।५०।। यदि ज्ञानी का ज्ञान क्रमश: पदार्थों का अवलम्बन कर उत्पन्न होता पाँचवाँ प्रवचन है, तो वह ज्ञान नित्य, क्षायिक एवं सर्वगत नहीं हो सकता। ___आप लाईन में खड़े रहो, जब नम्बर आएगा, तब मैं टिकिट दूंगा। ऐसे ही ज्ञान यदि यह कहने लग जाय कि अभी मैं इनको जान रहा हूँ, बाद में आपका नम्बर आएगा, तब आपको जान लूँगा । इसप्रकार यदि ज्ञान क्रम से जानने लग जाए तो वह ज्ञान सर्वगत, क्षायिक और नित्य कैसे हो सकता है ? केवलज्ञान सर्वगत है अर्थात् वह लोकालोक को जानता है, क्षायिक है, नित्य है अर्थात् वह कभी नष्ट नहीं होगा। यदि सर्वज्ञ क्रम से जानने लग जाएं तो उनके ज्ञान के लिए ये तीनों विशेषण प्रयुक्त नहीं किये जा सकते । केवलज्ञान सर्वगत है, क्षायिक है, नित्य है - यह मानकर भी यदि कोई यह ऐसा मान रहा है कि केवलज्ञान क्रम से जानता है तो वह इन विशेषणों का अर्थ ही नहीं समझता। पदार्थों को क्रम से जानने पर जगत के अनंत पदार्थों को जानने में अनंतकाल बीत जाएगा, तब भी जानना सम्भव नहीं होगा। यदि सबको जानना है तो एक समय में ही जानना चाहिए। यदि उसमें क्रम माना तो फिर जगत में कोई सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता। इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए यह गाथा महत्त्वपूर्ण है - तिक्कालणिच्चविसमं, सयलं सव्वत्थसंभवं चित्तं । जुगवं जाणदि जोण्हं, अहो हि णाणस्स माहप्पं ।।५१।। (हरिगीत) सर्वज्ञ जिन के ज्ञान का माहात्म्य तीनों काल के। जाने सदा सब अर्थ युगपद् विषम विविध प्रकार के ।।५१।। त्रिकालवर्ती, सदा विषम, सर्व क्षेत्र के विविध प्रकार के, सर्व पदार्थों को जिनदेव का ज्ञान एकसाथ जानता है। अहो ! यह ज्ञान का माहात्म्य है। यदि ज्ञान पहले मध्यलोक को, फिर उर्ध्वलोक को और फिर अधोलोक को जानेगा तो कम से कम तीन समय तो लगेंगे ही। जबतक 38
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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