SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवाँ प्रवचन तीर्थंकर परमात्मा की दिव्यध्वनि के सार इस प्रवचनसार में ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अन्तर्गत ज्ञानाधिकार में सर्वज्ञता के स्वरूप पर चर्चा चल रही है। सर्वज्ञता के स्वरूप पर प्रकाश डालनेवाली यह गाथा महत्त्वपूर्ण दव्वं अणंतपजयमेगमणंताणि दव्वजादाणि । ण विजाणदिजदिजुगवं किधसोसव्वाणि जाणादि ।।४९।। (हरिगीत) इक द्रव्य को पर्यय सहित यदि नहीं जाने जीव तो। फिर जान कैसे सकेगा इक साथ द्रव्यसमूह को।।४९।। यदि वह आत्मा अनन्त पर्यायोंवाले एकद्रव्य (आत्मद्रव्य) को नहीं जानता है तो वह सभी को एकसाथ कैसे जान सकेगा ? इस गाथा में अत्यन्त स्पष्टरूप से कहा गया है कि जब वह अपने एकद्रव्य की अनादि-अनंत पर्यायों को भी नहीं जान सकता तो फिर सब द्रव्यों की सब पर्यायों को कैसे जान सकता है ? लोग अपने क्षयोपशमज्ञान के आधार पर केवलज्ञान को तौलने की कोशिश करते हैं। कोई कहता है कि केवली भगवान सबको जानते तो हैं; लेकिन एकसाथ कैसे जान सकते हैं ? कोई कहता है कि जब अपने को जानते हैं, तब पर को कैसे जान सकते हैं ? कोई कहता है कि भूतकाल की जो पर्यायें नष्ट हो गई हैं, उन्हें कैसे जानेंगे ? कोई कहता है कि भविष्य की पर्यायें अभी पैदा ही नहीं हुई हैं; उन्हें कैसे जानेंगे? लोग तो भूत और भविष्य की पर्यायों में भी अन्तर करते हैं। कहते हैं कि भूतकाल की पर्यायें तो हो चुकी हैं; इसलिए वे तो निश्चित हैं। उनमें तो किसी भी प्रकार के फेरफार की सम्भावना नहीं है; किन्तु पाँचवाँ प्रवचन भविष्य की पर्यायें तो अभी हुई ही नहीं हैं। अत: वे तो निश्चित नहीं हैं। ___केवलज्ञान के स्वरूप के बारे में भी वे लोग कहते हैं कि आत्मा पर को जानता ही नहीं है; मात्र स्वयं को ही जानता है। अपनी ही पर्यायों के बारे में कहते हैं कि भूतकाल की और भविष्य की पर्यायों को नहीं जानता है; वह तो अपने त्रिकाली ध्रुव, जो दृष्टि का विषय है, मात्र उसे ही जानता है; क्योंकि पर्यायें भी तो पर हैं। निश्चय से स्व को जानता है और व्यवहार से पर को जानता है। यहाँ स्व में पर्यायें लेना है या नहीं? केवलज्ञान भी तो स्वयं एक पर्याय ही है। यदि स्व में अपने द्रव्य-गुण-पर्याय लें तो अनादिकाल से अनंतकाल तक की जितनी पर्यायें अभी हैं, हो गई हैं और होंगी; वे सब स्व में आ जाने से उन्हें तो यह आत्मा जानेगा ही। ___ इससे यह बात सिद्ध हो ही गई कि अनादिकाल से अनंतकाल की सब पर्यायें जानी जा सकती हैं। अत: वे निश्चित भी हैं ही। एक द्रव्य की पर्यायें निश्चित हैं तो दूसरे द्रव्य की भी निश्चित ही हैं। इसप्रकार आत्मा सर्व द्रव्यों की सर्व पर्यायों को एकसाथ जानता है - यह सिद्ध कर रहे हैं। कोई ज्योतिषी कहे कि इनका तो मैं भूत-भविष्य सब बता सकता हूँ; लेकिन तुम्हारा नहीं। इसका अर्थ यह है कि वह ढोंगी ज्योतिषी है; क्योंकि जब वह एक व्यक्ति का भविष्य बता सकता है तो फिर दूसरे का क्यों नहीं बता सकता ? असली बात तो यह है कि उसकी सारी जानकारियाँ वह पहले से ही एकत्रित कर लाया है। अत: भूतकाल की सब बातें एकदम सही बताता है। जब वह देखता है कि उसपर श्रद्धा हो गई है, तब भविष्य की गप्पे ठोकता है; क्योंकि भविष्य की बात जबतक गलत साबित होगी, तबतक वह रहेगा ही नहीं। जवाब देने का सवाल ही नहीं है। आप नरक जाएँगे या स्वर्ग जाएँगे अथवा तीन भव बाद मोक्ष 37
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy