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________________ प्रवचनसार का सार हमारे श्रुतज्ञान में भी ऐसा ही होता है। श्रुतज्ञान तो परोक्ष है; परन्तु केवलज्ञान में सब प्रत्यक्ष होता है। जैसे हम पूछते हैं कि - 'आपके घर से मंदिर कितनी दूर है' तब आप तुरन्त उत्तर देते हैं कि - 'जितनी दूर यहाँ से गांधीजी की मूर्ति है।' गांधीजी की मूर्ति से हमें व आपको कुछ भी लेना-देना नहीं है। मंदिरजी में गांधीजी की मूर्ति नहीं है; भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। तो गांधीजी की मूर्ति के बारे में क्यों कहा ? पार्श्वनाथ की मूर्ति के बारे में ही बताते। अरे भाई! गांधीजी की मूर्ति से तो कुछ लेना-देना नहीं है; किन्तु क्षेत्र की दूरी को तो समझना है। यहाँ से गांधीजी की मूर्ति कितनी दूर है; इसका आपको ज्ञान है और हमारा मंदिर घर से कितना दूर है; इसका ज्ञान नहीं है; इसलिए हमने गांधीजी की मूर्ति का उदाहरण दिया है। चित्रपट की भाँति भूत और भविष्य की पर्यायें हमारे श्रुतज्ञान में जानने में आ जाती है तो केवलज्ञान में क्यों नहीं आ सकती। आगे की गाथा इस विषय को और अधिक स्पष्ट करती है - जे णेव हि संजाया, जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया। ते होंति असम्भूदा, पज्जाया णाणपच्चक्खा ।।३८।। (हरिगीत) पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं। असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञानप्रत्यक्ष हैं ।।३८।। वास्तव में जो पर्यायें उत्पन्न नहीं हुई हैं तथा जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं; वे सभी अविद्यमान पर्यायें भी ज्ञान-प्रत्यक्ष होती हैं। ___ भविष्य की पर्यायें, जो अभी पैदा नहीं हुई हैं और भूतकाल की पर्यायें जो असद्भूत हैं अर्थात् वर्तमान की अपेक्षा नहीं हैं। वे सब पर्यायें केवलज्ञान में वर्तमान पर्याय के समान ही जानने में आ रही हैं। प्रवचनसार गाथा ३८ की तत्त्वप्रदीपिका टीका में उदाहरण द्वारा यह विषय सम्यक्रूप से स्पष्ट किया गया है - चौथा प्रवचन 'पाषाणस्तम्भ में उत्कीर्ण भूत और भावी देवों (तीर्थंकर देवों) के समान अकम्परूप से स्व-स्वरूप को अर्पित करती हुई, वे पर्यायें विद्यमान ही हैं।' जिसप्रकार एक खम्बे में भूतकाल, वर्तमान और भविष्यकाल की चौबीसी बना देते हैं; तब तीनों चौबीसियाँ एकसाथ दिखाई देती हैं। इसमें ऐसा नहीं है कि भूतकाल की चौबीसी थोड़ी कम दिखती होगी और भविष्यकाल की धुंधली दिखती होगी। ऐसा समझ लो कि अभी हम शीतलनाथ भगवान के समय में हैं और हमने चौबीसी मंदिर की प्रतिष्ठा कर दी। हमने २४ मूर्तियाँ नहीं रखी हैं; अपितु सभी एक ही खम्बे में उत्कीर्ण की हैं। शीतलनाथ भगवान तो समवशरण में विद्यमान है। पुष्पदंत भगवान तक मोक्ष चले गए हैं। भगवान श्रेयांसनाथ से भगवान महावीर तक अभी मोक्ष नहीं गए हैं। ____ यदि हम उस खम्बे को देखते हैं तो हमारे क्षयोपशमज्ञान में एकसाथ चौबीसों मूर्तियाँ दिखाई देती हैं। ऐसे ही भगवान के केवलज्ञान में भूतकाल की अनंत चौबीसियाँ और भविष्यकाल की अनन्त चौबीसियाँ दिखाई देती हैं। ____ भविष्यकाल की अनंत चौबीसियाँ उनके ज्ञान में आ गई हैं; इसका अर्थ यह है कि अनंत चौबीसियाँ निश्चित हैं। इसके आधार पर क्रमबद्धपर्याय का सिद्धान्त सिद्ध होता है। यही कारण है कि मैंने क्रमबद्धपर्याय' नामक पुस्तक में यह लिखा है कि यदि आप क्रमबद्धपर्याय नहीं मानते हो तो मत मानो; लेकिन सर्वज्ञता की बात तो करो। क्रमबद्धपर्याय के लिए सर्वज्ञता की तिलाञ्जलि क्यों देते हो ? अरे, भाई ! जैनियों का सम्पूर्ण न्यायशास्त्र सर्वज्ञता की सिद्धि के लिए ही समर्पित है। ___ कुछ लोग कहते हैं कि भविष्य में होनेवाली पर्यायें तो अभी हुई ही नहीं हैं। उन्हें सर्वज्ञ भगवान कैसे जान सकते हैं ? 31
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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