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________________ ___407 406 प्रवचनसार का सार जिसप्रकार काँटे की नोक किसी ने बनाई नहीं है, असंस्कारित है, अकृत्रिम है, काँटे का मूलस्वभाव है; उसीप्रकार भगवान आत्मा का मूलस्वभाव असंस्कारित है, अकृत्रिम है, किसी का बनाया हुआ नहीं है; उसमें किसी भी प्रकार का संस्कार संभव नहीं है। अत: वह भगवान आत्मा स्वभावनय से संस्कारों को निरर्थक करनेवाला कहा गया है। तथा जिसप्रकार बाण की नोक लुहार द्वारा बनाई गई है; अत: संस्कारित है, कृत्रिम है; उसीप्रकार भगवान आत्मा के पर्यायस्वभाव में संस्कार किया जा सकता है; अतः अस्वभावनय से भगवान आत्मा संस्कारों को सार्थक करनेवाला कहा गया है। आत्मा में एक धर्म तो ऐसा है कि जिसके कारण उसमें संस्कार नहीं डाले जा सकते और दूसरा धर्म ऐसा है कि जिसके कारण समस्त संस्कारों से वह अप्रभावित रहता है। चंदनविष व्यापै नहीं, लिपटे रहत भुजंग' / इस धर्म का नाम स्वभावधर्म है। आत्मा में एक ऐसा धर्म भी है कि उसे संस्कारित किया जा सकता है। जैसे कहा जाता है - संगति ही गुण ऊपजे, संगति ही गुण जाय। बाँस फाँस और मीसरी, एक ही भाव बिकाय / / इस धर्म का नाम अस्वभावधर्म है तथा आत्मा के इन स्वभावधर्म और अस्वभावधर्म को विषय बनाने वाले नयों को स्वभावनय और अस्वभावनय कहा जाता है। यदि आत्मा को संस्कारित नहीं किया जा सकता होता तो देशनालब्धि का कोई मतलब ही नहीं है तथा यदि संस्कार से ही काम होता तो निसर्गज सम्यग्दर्शन होता ही नहीं तथा यदि अन्दर में योग्यता हुए बिना मात्र देशना से ही सम्यग्दर्शन होता तो पत्थर को सम्यग्दर्शन हो जाता; क्योंकि उसे भी देशना सुनने मिल जाती है। अरे भाई ! जिस कपड़े में स्वभाव से स्वच्छता है, वही कपड़ा साबुन से साफ हो सकता है; संस्कारित किया जा सकता है। इसप्रकार भगवान आत्मा स्वभावनय से संस्कारों को निरर्थक करने पच्चीसवाँ प्रवचन वाला कहा गया है तथा अस्वभावनय से भगवान आत्मा संस्कारों को सार्थक करनेवाला कहा गया है। इसप्रकार यहाँ 47 नयों में से कुछ नयों का नमूने के तौर पर स्वरूप स्पष्ट करने का प्रयास किया; किन्तु अभी अनेक ऐसे नय हैं, जिनका स्वरूप समझना आत्मकल्याण की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है; अत: जिज्ञासु पाठकों से मेरा विशेष अनुरोध है कि वे परमभावप्रकाशक नयचक्र के 47 नयों संबंधी प्रकरण का गहराई से अध्ययन अवश्य करें। प्रवचनसार में समागत उक्त 47 नयों के संदर्भ में आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रवचनों का संकलन 'नयप्रज्ञापन' का भी स्वाध्याय करना अत्यन्त उपयोगी है। भगवान अरिहंत की दिव्यध्वनि के सारभूत इस प्रवचनसार ग्रन्थाधिराज में तीन महाधिकारों के माध्यम से यह समझाया गया है कि इस भगवान आत्मा का स्वभाव सबको जानने-देखने का है और सम्पूर्ण जगत का स्वभाव इस भगवान आत्मा के ज्ञान का ज्ञेय बनने का है। ___तात्पर्य यह है कि जगत का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है कि जो किसी न किसी के ज्ञान का विषय न बना हो, जाना नहीं गया हो और कोई आत्मा भी ऐसा नहीं है कि उसने किसी को आजतक जाना ही न हो। उक्त महासत्य के प्रतिपादन के लिए इसके ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार समर्पित हैं। उक्त अधिकारों में शुद्धोपयोग-शुभोपयोग, अतीन्द्रियज्ञानअतीन्द्रियसुख और इन्द्रियज्ञान-इन्द्रियसुख का तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, महासत्ता-अवान्तरसत्ता, छहों द्रव्यों का स्वरूप आदि बताकर ज्ञान और ज्ञेयों के बीच भेदज्ञान कराने का सफल प्रयास किया गया है। अन्तिम अधिकार चरणानुयोगसूचक चूलिका में श्रमणों के आचरण का सुन्दरतम विवेचन है। इसप्रकार यह ग्रन्थाधिराज अपने में वह सबकुछ समेटे है कि जिसका आत्महित के लिए जानना अत्यन्त आवश्यक है। 200
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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