SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसारका सार ___४०५ ४०४ आत्मा सर्वगत है अर्थात् सबको जानने का उसका स्वभाव है; धर्म है। सबको जानना आत्मा का विकार नहीं है। पर को जानने का जो यह स्वभाव है, वह दृष्टि के विषय में शामिल है; क्योंकि यह स्वभाव आत्मा का गुण है, धर्म है। आत्मा में एक असर्वगत नामक धर्म भी है, जिसके कारण आत्मा अपने में से निकलकर कहीं जाता नहीं है। अशून्यनय के कारण आत्मा सबको जानता है, सभी ज्ञेय आत्मा के जानने में आते हैं अर्थात् आत्मा पर से शून्य नहीं है। शून्यनय के कारण पर को जानते हुए भी पर ने आत्मा में रंचमात्र भी प्रवेश नहीं किया। जिनको ऐसा डर लगता है कि यदि आत्मा पर को जानेगा तो पर आत्मा में प्रविष्ट हो जाएंगे और आत्मा पर में प्रविष्ट हो जाएगा; उनको शून्यनय का स्वरूप समझना चाहिए। कितने ही पर जानने में आवें अथवा यह पर को कितना भी जाने; परन्तु शून्यनय से आत्मा पर से सदा शून्य ही रहेगा। आत्मा में ज्ञानज्ञेय-द्वैत नामक एक ऐसा धर्म है, जिसके कारण ज्ञान में ज्ञेय आते हैं; लेकिन मिलते नहीं हैं, उनमें द्वैतपना अर्थात् जुदाजुदापना बना रहता है। आत्मा में ज्ञानज्ञेय-अद्वैत नामक एक ऐसा धर्म है, जिसके कारण ज्ञेय पूरीतरह जानने में आ जाते हैं अर्थात् एकाकार हो जाते हैं। ज्ञेय आत्मा में पूरी तरह मिल भी जाते हैं और नहीं भी मिलते हैं - ऐसा आत्मा का अनेकान्तस्वभाव है। सर्वगतादि नयों के संदर्भ में ‘परमभावप्रकाशक नयचक्र' की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं - __ "सर्वगत, असर्वगत, शून्य एवं अशून्य नयों के माध्यम से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह भगवान आत्मा ज्ञेयों को जानता तो है; पर उनमें जाता नहीं, उनमें प्रवेश नहीं करता। इसीप्रकार ज्ञेय ज्ञान द्वारा जाने तो जाते हैं, पर वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते। पच्चीसवाँ प्रवचन ज्ञान ज्ञान में रहता है और ज्ञेय ज्ञेय में रहते हैं; दोनों के अपनेअपने में सीमित रहने पर भी ज्ञान द्वारा ज्ञेय जाने जाते हैं। इसी वस्तुस्थिति को ये नय इसप्रकार व्यक्त करते हैं - सब ज्ञेयों को जानने के कारण आत्मा सर्वगत है और ज्ञेयों में न जाने के कारण असर्वगत हैं तथा ज्ञान में ज्ञेयों के अप्रवेश के कारण आत्मा ज्ञेयों से शून्य है, खाली है और ज्ञेयों को जानने के कारण ज्ञेयों से अशून्य है, भरा हुआ है। इतना जान लेने पर भी यह जिज्ञासा शेष रह जाती है कि ज्ञान में ज्ञात होते हुए ज्ञेय ज्ञान से भिन्न हैं या अभिन्न हैं; वे ज्ञेय ज्ञान से अद्वैत हैं, एकमेक हैं या द्वैत हैं, अनेक हैं ? ___इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए यहाँ कहा जा रहा है कि ज्ञानज्ञेयअद्वैतनय से ज्ञान में झलकते हुए ज्ञेयपदार्थ ज्ञान से अभिन्न हैं, अद्वैत हैं, एक हैं और ज्ञानज्ञेय-द्वैतनय से ज्ञान में झलकते हुए ज्ञेयपदार्थ ज्ञान से भिन्न हैं, द्वैत हैं, अनेक हैं।" तदनन्तर आचार्य स्वभावनय और अस्वभावनय का स्वरूप इसप्रकार समझाते हैं - __ "स्वभावनयेनानिशिततीक्ष्णकण्टकवत्संस्कारानर्थक्यकारि । अस्वभावनयेनायस्कारनिशिततीक्ष्णविशिखवत्संस्कारसार्थक्यकारि । - आत्मद्रव्य, स्वभावनय से, जिसकी किसी के द्वारा नोक नहीं निकाली जाती, ऐसे पैने काँटे की भाँति संस्कारों को निरर्थक करनेवाला है और अस्वभावनय से, जिसकी नोक लुहार के द्वारा संस्कार करके निकाली गई है, ऐसे पैने बाण की भाँति, संस्कार को सार्थक करनेवाला है।" ____ बहुत लोग ऐसा कहते हैं कि बच्चों में धार्मिक संस्कार डालना है तो आत्मा को संस्कारित किया जा सकता है या नहीं ? ___ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि आत्मा को संस्कारित किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जा सकता है। यह जैनधर्म का अनेकान्त है। १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ३११, ३१२ 199
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy