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________________ प्रवचनसार का सार ३८६ इसी गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है - “अनेकान्त के द्वारा ज्ञात सकल ज्ञातृतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के यथास्थित स्वरूप में जो प्रवीण हैं, अन्तरंग में चकचकित होते हुए अनन्तशक्तिवाले चैतन्य से भास्वर (तेजस्वी) आत्मतत्त्व के स्वरूप को जिनने समस्त बहिरंग तथा अंतरंग संगति के परित्याग से विविक्त (भिन्न) किया है और (इसलिए) अन्त:तत्त्व की वृत्ति (आत्मा की परिणति) स्वरूप गुप्त तथा सुषुप्त (जैसे कि सो गया हो) समान (प्रशांत) रहने से जो विषयों में किंचित् भी आसक्ति को प्राप्त नहीं होते, ऐसे जो सकल महिमावान् भगवन्त 'शुद्ध' (शुद्धोपयोगी) हैं; उन्हें ही मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व जानना। (अर्थात् वे शुद्धोपयोगी मोक्षमार्गरूप हैं) क्योंकि वे अनादि संसार से रचित - बन्द रहे हुए विकट कर्मकपाट को तोड़ने-खोलने के अति उग्र प्रयत्न से पराक्रम प्रगट कर रहे हैं।" टीका में 'ज्ञात सकल ज्ञातृतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व' कहकर आचार्यदेव ने समग्ररूप से प्रवचनसार को याद किया है। वे यहाँ यह कहना चाहते हैं कि ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार से सर्वज्ञता का तथा ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार से 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्', गुणपर्यवद् द्रव्यम्, स्वरूपास्तित्त्व व सादृश्यास्तित्त्व का स्वरूप समझ लेना चाहिए। तदनन्तर टीका में शुद्धोपयोगी को मोक्षमार्गरूप कहा है। शुद्धोपयोग भावरूप है; अत: वह मोक्षमार्ग है; किन्तु शुद्धोपयोगी मुनिराज साक्षात् मोक्षस्वरूप है। जिसप्रकार क्रोध तो भाव है; लेकिन कोई व्यक्ति यदि क्रोध से लाल-पीला हो रहा हो, तो उन्हें देखकर यह कहा जाता है कि यदि क्रोध के दर्शन करना हो तो इनके दर्शन कर लो। उसीप्रकार शुद्धोपयोग तो भाव है; लेकिन यदि कोई साक्षात् मोक्षमार्ग देखना चाहता हो तो यह कह दिया जाता है कि इन शुद्धोपयोगी मुनिराज के दर्शन कर लो। इसप्रकार मुनिराज साक्षात् मोक्षमार्ग के पिण्ड हैं। यहाँ मुनिराज को साक्षात् मोक्षमार्ग का पिण्ड कहा है। यह मुनियों चौबीसवाँ प्रवचन ३८७ के आचरण का प्रकरण होने से सही मुनियों की महिमा बताने के लिए उन्हें मोक्षतत्त्व कहा, मोक्ष का साधन तत्त्व कहा तथा जो इन शुद्धोपयोगी मुनियों की शरण में जावेगा उसके अनंत संसार का नाश हो जाएगा तथा अल्पकाल में ही मोक्ष चला जाएगा और गलत मुनियों की महिमा हमारे चित्त में से निकालने के लिए उन्हें संसारतत्त्व कहा तथा जो इन भ्रष्ट मुनियों का सेवन करेगा वह अनंतकाल तक संसार में भटकेगा। चक्रवर्ती भी शुद्धोपयोगी मुनियों के पास घण्टों बैठकर चले जाए तो भी मुँह से आशीर्वाद के शब्द भी नहीं निकलें; क्योंकि वे शुद्धोपयोगी मुनिराज तो अपने में मग्न हैं, उन्हें जगत से कुछ लेना-देना नहीं है, उन्हें लोक का संग्रह करना ही नहीं है। अतएव शुद्धोपयोगी मुनियों को साक्षात् मोक्षतत्त्व कहा तथा भ्रष्ट मुनियों को संसारतत्त्व कहा। इसी संदर्भ में, मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व का (अर्थात् शुद्धोपयोगी का) सर्वमनोरथों के स्थान के रूप में अभिनन्दन (प्रशंसा) करनेवाली पंचरत्न की चौथी गाथा की टीका भी दृष्टव्य है - "प्रथम तो, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के युगपद्पनेरूप से प्रवर्तमान एकाग्रता जिसका लक्षण है - ऐसा जो साक्षात् मोक्षमार्गभूत श्रामण्य, 'शुद्ध' के ही होता है; समस्त भूत-वर्तमान-भावी व्यतिरेकों के साथ मिलित (मिश्रित), अनन्त वस्तुओं का अन्वयात्मक जो विश्व उसके (१) सामान्य और (२) विशेष के प्रत्यक्ष प्रतिभास स्वरूप जो (१) दर्शन और (२) ज्ञान वे 'शुद्ध' के ही होते हैं; निर्विघ्न खिले हुए सहज ज्ञानानन्द की मुद्रावाला (स्वाभाविक ज्ञान और आनन्द की छापवाला) दिव्य जिसका स्वभाव है ऐसा जो निर्वाण, वह 'शुद्ध' के ही होता है; और टंकोत्कीर्ण परमानन्द अवस्थारूप से सुस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि से गंभीर ऐसे जो भगवान सिद्ध, वे 'शुद्ध' ही होते हैं (अर्थात् शुद्धोपयोगी ही सिद्ध होते हैं), वचनविस्तार से बस हो! सर्वमनोरथों के स्थानभूत, मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्वरूप, 'शुद्ध' को, जिसमें परस्पर 190
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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