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________________ ३८४ ___३८५ प्रवचनसार का सार ___ इस गाथा में यह कहा है कि जो तत्त्वों को सहीरूप से नहीं जानते हैं अर्थात् जिन्होंने तत्त्वों को गलतरूप से ग्रहण किया है, जिनमत में रहते हुए भी उन मुनिराजों को अनंत संसाररूप फल मिलेगा तथा वे कितने काल तक संसार में रहेंगे इसका कोई ठिकाना नहीं है अर्थात् वे अनंतकाल तक संसार में रहेंगे। इसी गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है - "जो स्वयं अविवेक से पदार्थों को अन्यथा ही अंगीकृत करके 'ऐसा ही तत्त्व है' ऐसा निश्चय करते हुए, सतत एकत्रित किये जानेवाले महा मोहमल से मलिन मनवाले होने से नित्य अज्ञानी हैं, वे भले ही समय में अर्थात् द्रव्यलिंगी रूप से जिनमार्ग में स्थित हों; तथापि परमार्थ श्रामण्य को प्राप्त न होने से वास्तव में श्रमणाभास वर्तते हए अनन्त कर्मफल की उपभोग राशि से भयंकर ऐसे अनन्तकाल तक अनन्त भावान्तररूप परावर्तनों से अनवस्थित वृत्तिवाले रहने से, उनको संसार तत्त्व ही जानना।" टीका में कथित 'समय में स्थित है' का तात्पर्य 'जैनदर्शन में स्थित है' अर्थात् जिन्होंने द्रव्यलिंग धारण कर लिया हो तथा मुनियों के वेश में रहते हो, समाज उन्हें मुनि स्वीकार करती हो। जिसप्रकार अष्टपाहुड़ में चलते-फिरते मुनिराज को साक्षात् जैनदर्शन कहा है; उसीप्रकार यहाँ भ्रष्ट मुनिराजों को संसारतत्त्व कहा है। तदनन्तर मोक्षतत्त्व को प्रगट करनेवाली २७२वीं गाथा इसप्रकार है अजधाचारविजुत्तोजद्यत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा। अफले चिरंण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ।।२७२।। (हरिगीत) यथार्थग्राही तत्त्व के अर रहित अयथाचार से। प्रशान्तात्मा श्रमण वे ना भवभ्रमे चिरकाल तक।।२७२।। जो जीव यथार्थतया पदों का तथा अर्थों (पदार्थों) का निश्चयवाला होने से प्रशान्तात्मा है और अयथाचार (अन्यथा आचरण अयथार्थ चौबीसवाँ प्रवचन आचरण) रहित है; वह संपूर्ण श्रामण्यवाला जीव अफल (कर्मफल रहित हुए) इस संसार में चिरकाल तक नहीं रहता (अल्पकाल में ही मुक्त होता है।) पूर्व गाथा में भ्रष्ट मुनि को असदाचार से युक्त कहा था तथा इस गाथा में सही मुनिराजों को असदाचार से वियुक्त अर्थात् रहित कहा है। विगत गाथा में तत्त्वज्ञान से भ्रष्ट मुनियों को संसारतत्त्व कहा था और अब इस गाथा में तत्त्वज्ञ मुनिराजों को मोक्षतत्त्व कहा जा रहा है। इसी गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है___ “जो श्रमण त्रिलोक की चूलिका के समान निर्मल विवेकरूपी दीपिका के प्रकाशवाला होने से यथास्थित पदार्थ निश्चय से उत्सुकता निवर्तन करके स्वरूपमंथर रहने से सतत 'उपशांतात्मा' वर्तता हुआ, स्वरूप में एक में ही अभिमुखरूप से विचरता होने से 'अयथाचार रहित' वर्तता हुआ नित्य ज्ञानी हो; वास्तव में उस सम्पूर्ण श्रामण्यवाले साक्षात् श्रमण को मोक्षतत्त्व जानना; क्योंकि पहले के सकल कर्मों के फल उसने लीलामात्र से नष्ट कर दिये हैं; इसलिए और वह नूतन कर्मफलों को उत्पन्न नहीं करता; इसलिए पुन: प्राण-धारणरूप दीनता को प्राप्त न होता हुआ द्वितीय भावरूप परावर्तन के अभाव के कारण शुद्धस्वभाव में अवस्थित वृत्तिवाला रहता है।" ___तदनन्तर मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व प्रकट करनेवाली २७३वीं गाथा इसप्रकार है सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं । विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्धा त्ति णिहिट्ठा ।।२७३।। (हरिगीत) यथार्थ जाने अर्थ दो विध परिग्रह को छोड़कर । ना विषय में आसक्त वे ही श्रमण शुद्ध कहे गये।।२७३।। सम्यक् (यथार्थतया) पदार्थों को जानते हुए जो बहिरंग तथा अंतरंग परिग्रह को छोड़कर विषयों में आसक्त नहीं हैं, वे 'शुद्ध' कहे गये हैं। 189
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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