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________________ प्रवचनसारका सार ३८८ अंगअंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्य के कारण स्व-पर का विभाग अस्त हुआ है - ऐसा भावनमस्कार हो।" टीका में पहली बात तो यह बताई है कि भूत, भविष्यत् और वर्तमान - ये ऊर्ध्वतासामान्य है और इनका स्वभाव व्यतिरेकी है। यहाँ 'व्यतिरेकी' का तात्पर्य यह है कि एक में दूसरे का नहीं होना अर्थात् भूत की पर्याय में वर्तमान की पर्याय नहीं है तथा वर्तमान की पर्याय में भविष्य की पर्याय नहीं है। इसप्रकार इन भूत-भविष्य-वर्तमान की पर्यायों का व्यतिरेकी स्वभाव है तथा गुणों और प्रदेशों का अन्वयी स्वभाव है अर्थात् गुण व पर्याय एकसाथ रह सकते हैं, जैसे :- ज्ञान भी आत्मा के असंख्य प्रदेशों में है तथा सुख भी आत्मा के अनंत प्रदेशों में है। इसप्रकार भगवान आत्मा तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य का पिण्ड है अर्थात् भगवान आत्मा अन्वयों से भी सहित है और व्यतिरेकों से भी सहित है। तदनन्तर टीका में अन्वय-व्यतिरेकीरूप तथा गुणपर्याययुक्त भगवान आत्मा को सामान्य और विशेष के प्रत्यक्षप्रतिभासस्वरूप कहा है। 'सामान्य' का अर्थ दर्शन और 'विशेष' का अर्थ ज्ञान है। इसप्रकार शुद्ध भगवान आत्मा के आश्रय से ही पर्याय में शुद्धता की प्राप्ति होती है, इसलिए वह भगवान आत्मा शुद्ध का साधन भी है और शुद्ध भी है। इसके बाद टीका में यह कहा है कि सभी मनोरथों की पूर्ति आत्मा के आश्रय से ही होगी तथा मोक्षतत्त्व का साधनभूत भी वही शुद्ध आत्मा है, जिसमें परस्पर अंगअंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्यता के कारण स्व-पर का विभाग अस्त हआ है। आचार्यदेव ने जो अंत में नमस्कार करने की बात कही है; उस संदर्भ में मैं यह कहना चाहता हूँ कि नमस्कार किसको किया जाय और कौन करे? क्योंकि नमस्कार करनेवाला तथा जिसको नमस्कार किया जाय - ये दोनों एक ही हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि द्रव्यनमस्कार की क्या चौबीसवाँ प्रवचन ____३८९ कीमत है ? मैं मेरे को ही नमस्कार करूँ; क्योंकि यदि दूसरों को नमस्कार करता हूँ तो दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना पड़ता है; लेकिन अपने को नमस्कार करने के लिए हाथ जोड़ने की जरूरत नहीं है। इसलिए आचार्यदेव ने अपने को नमस्कार करने के लिए कहा है। अपने प्रति जो अपनापन है; वही नमस्कार है; अपनी महिमा के प्रति समर्पण ही नमस्कार है; अपने प्रति अपना जीवन लगा देना ही सबसे बड़ा नमस्कार है। आचार्यदेव ने यहाँ जिस नमस्कार की बात कही है; उसका अर्थ यही है कि अपने उपयोग को सारे जगत से हटाकर 'शुद्ध' पर लगाना। तदनन्तर (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव) शिष्यजन को शास्त्र के फल के साथ जोड़ते हुए शास्त्र समाप्त करते हैं - बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सोपवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि ।।२७५।। (हरिगीत) जो श्रमण-श्रावक जानते जिनवचन के इस सार को। वे प्राप्त करते शीघ्र ही निज आत्मा के सार को।।२७५।। जो साकार-अनाकार चर्या से युक्त वर्तता हुआ इस उपदेश को जानता है, वह अल्पकाल में ही प्रवचन के सार को (भगवान आत्मा को) पाता है। आचार्यदेव कहते हैं कि आत्मा जिन दर्शन और ज्ञान उपयोग से जाना जाता है; उन दर्शन और ज्ञान उपयोग से जो मेरी बात समझेगा, वह भगवान की वाणी अर्थात् दिव्यध्वनि के सार को प्राप्त होगा। इसी संदर्भ में इस गाथा की टीका भी द्रष्टव्य है - __ "सुविशुद्ध ज्ञानदर्शन मात्र स्वरूप में अवस्थित परिणति में लगा होने से साकार-अनाकार चर्या से युक्त वर्तता हुआ, जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रों के अर्थों के विस्तार-संक्षेपात्मक श्रुतज्ञानोपयोगपूर्वक प्रभाव द्वारा केवल आत्मा को अनुभवता हुआ, इस उपदेश को जानता ___191
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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