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________________ ३४३ ३४२ प्रवचनसार का सार - दोनों का निषेध है; क्योंकि दोनों ही अशुद्धोपयोग हैं। शुभोपयोग को धर्म मान कर उससे निर्जरा माननेवालों को इस प्रकरण पर ध्यान देना चाहिए। इसी संदर्भ में गाथा २१९ का भावार्थ भी द्रष्टव्य है - "अशुद्धोपयोग का असद्भाव हो, तथापि काय की हलनचलनादि क्रिया होने से परजीवों के प्राणों का घात हो जाता है। इसलिए कायचेष्टापूर्वक परप्राणों के घात से बंध होने का नियम नहीं है। अशुद्धोपयोग के सद्भाव में होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणों के घात से तो बंध होता है और अशुद्धोपयोग के असद्भाव में होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणों के घात से बंध नहीं होता; इसप्रकार कायचेष्टापूर्वक होनेवाले परप्राणों के घात से बंध का होना अनैकान्तिक होने से उसके छेदपना अनैकान्तिक है, नियमरूप नहीं है। जिसप्रकार भाव के बिना भी परप्राणों का घात हो जाता है; उसीप्रकार भाव न हो; तथापि परिग्रह का ग्रहण हो जाय - ऐसा कभी नहीं हो सकता । जहाँ परिग्रह का ग्रहण होता है; वहाँ अशुद्धोपयोग का सद्भाव अवश्य होता ही है। इसलिए परिग्रह से बंध का होना ऐकान्तिक-निश्चित-नियमरूप है। इसलिए परिग्रह के छेदपना ऐकान्तिक है। ऐसा होने से ही परमश्रमण ऐसे अर्हन्त भगवन्तों ने पहले से ही सर्व परिग्रह का त्याग किया है और अन्य श्रमणों को भी पहले से ही सर्व परिग्रह का त्याग करना चाहिये।" यहाँ पर मैं परिग्रह और हिंसा में एक अंतर स्पष्ट करना चाहता हूँ। वह अंतर यह है कि परप्राणों का घात हो जाय और हिंसा नहीं हो' - ऐसा तो हो सकता है; किन्तु परिग्रह हो और पाप न हो' - ऐसा नहीं हो सकता है। भाव के बिना हिंसा तो हो सकती है अर्थात् प्राणों का घात तो हो सकता है; लेकिन भावों के बिना परपदार्थों का ग्रहण इक्कीसवाँ प्रवचन नहीं हो सकता। तदनन्तर आचार्य अमृतचंद्र कहने योग्य सब कहा गया है' इत्यादि कथन श्लोक के माध्यम से कहते हैं - (वसंततिलका) वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्त, मेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि। व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं, निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि ।।१४।। (दोहा) जो कहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब । इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ।।१४।। जो कहने योग्य था; वह अशेषरूप से कह दिया गया है, इतने मात्र से ही कोई चेत जाय, समझ ले तो समझ ले और न समझे तो न समझे अब वाणी के अतिविस्तार से क्या लाभ है ? क्योंकि निश्चेतन (जड़वत्, नासमझ) के व्यामोह का जाल वास्तव में अति दुस्तर है। तात्पर्य यह है कि नासमझों को समझाना अत्यन्त कठिन है। यह श्लोक अत्यंत मार्मिक है। आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार की आत्मख्याति टीका में तो २७८ श्लोक लिखे है; किन्तु प्रवचनसार की टीका में २२ छन्द ही लिखे हैं। उन्हीं में से एक छन्द यह भी है। इस कलश में आचार्य कह रहे हैं कि जो समझाया जा सकता था, वह हमने समझा दिया। जिन्हें समझ में आना होगा, उन्हें इतने से ही समझ में आ जाएगा और जिन्हें समझ में नहीं आना है; उनके लिए कितना ही विस्तार क्यों न करें, समझ में नहीं आएगा; अतएव मैं इस चर्चा से अब विराम लेता हूँ। 168
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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